फिर कैसे विश्राम हो कोई ?
फिर कैसे विश्राम हो कोई ?
अथक परिश्रम नहीं आराम, ना कर्मों को अल्प विराम।
जीवन के कई झगड़े सारे, सुलझाने हैं लफड़े सारे।
भाव कई मन को बसते हैं, गीत कहानी बन फलते हैं ।
ज्ञान पड़ा इस जग में इतना, कैसे पढ़ सब कर लूँ अपना?
इक्क्षाओं से उलझन बढ़ती, कतिपय ना मन सुविधा गढ़ती।
दुविधा का परिणाम ना कोई , फिर कैसे विश्राम हो कोई ?
अजय अमिताभ सुमन