फितरत
फितरत
इस रंग बदलती दुनिया में
तुम बदल गए तो क्या गम है
गैरों की फितरत बदली थी
अपने भी उन से क्या कम हैं ।
कहते थे तुम से जीवन है
तुम से ही सुन्दर ये जग है
‘गर तुम न हो तो मैं भी नहीं
तुम से जग में न कोई हसीं ।
तुम मेरी हंसी के कायल थे
न रह पाते थे मेरे बिना
संग संग जीने की कसमें थी
अब क्यों नजरों को फेर लिया?
सुनते थे रिश्ते हैं झूठे
मतलब से ही हैं सब मीठे
खुदगरजी का यह आलम है
फितरत सब की पल में बदले ।
फिर भी जीना चाहा है यहां
हर पल बदला है वक्त सदा
अच्छे दिन फिर लौट आएंगे
बिछड़े अपने मिल जायेंगे।
इंसान की फितरत चंचल है
पल में चाहत फिर नफरत है
घबराना क्या इन बातों से
आगे बढना ही जीवन है।
छोड़ के कडवी यादों को
उन दर्द भरे अहसासों को
भर लो खुशियां तुम दामन में
इस मन उपवन के आंगन में।
विनीता नरूला
रिटायर्ड प्राचार्या
के वि एस