फासले जिन्दगी के
अजब पहेली है
ये जिन्दगी
कभी देती
खुशी तो गम
दिखने लगे हैं
फासले उम्र की
कगार पर
झुर्रिया बताने
लगी हैं
हाले ए मिजाज के
दूरियाँ कुछ
यूँ बढ़ गयी
इन्सान में
नकाब से
चेहरे नजर
आने लगे हैं
ऐ खुदा
मौत दे देना
भले ही
पर फासले
न दे रिश्तों में
मुकाम ने
भले ही बढ़ा
दी हों दूरियाँ
पैर
महफ़ूज हैं
तो काहे के
फासले
अपने
माँ-बाप से
न बढ़ाना
दूरियाँ
मंदिर- मस्जिद
है यहाँ फिर
कबा – काशी
जाना है क्यो
इतनी
मोहब्बत कर
ऐ इन्सान
अपनों से
दूरियाँ
जिन्दगी की
यूँ ही
कट जायेगी
स्वलिखित
लेखक संतोष श्रीवास्तव भोपाल