फाल्गुन वियोगिनी व्यथा
देवरू ननदिया के बारी, सजन रंगवा कईसे लगवाई
फागुन में कसे व्यंग नारी, श्रृंगार बोला कईसे सजाई
भोरे में लगे शिहरावन, फागुन देला अगिया लगाई
उठेला बदन में अंगड़ाई, सजन तु त गईला भुलाई
करकस कोयलिया के बोली,गड़े मनवा बबुर के काटा
मनवा भईल मोर खाटा, सेजिया काटे जईसे हो माटा
फागुन में फगुवा के गारी, मुँहे में दही कईसे सजाई
उठेला बदन में अंगड़ाई, सजन तु त गईला भुलाई
मन मनका के, लिही भिगाई, जागी प्यारी स्नेहिया
स्नेह रंग से, मन के रंग दिही, मोरी धानी चुनरिया
द्वेष भावना घृणा त्यागी, मीठे प्रेम की बंशी बजाई
उठेला बदन में अंगड़ाई, सजन तु त गईला भुलाई
तीसी के घुंडी सा नाचे, सरसों सा बिखरे तरुणाई
पापी कागा बोले अटरिया, उत्सुक अलख जगाई
जौ गेहूँ से पाक गए मन, साजन झलक नहीं पाई
उठेला बदन में अंगड़ाई, सजन तु त गईला भुलाई
नाचे सखियाँ बाजे ढोलक, संग में झाल मजीरा
मेरे मन में बिछोह खनक की, बाजे दारुक पीरा
छोड़ बिदेशवा घरवा आई, देई उपवन महकाई
उठेला बदन में अंगड़ाई, सजन तु त गईला भुलाई
अंखियाँ से बहे अश्रु धारा, पोछे में दुख जाए कलाई
फागुन के पुरवी बयरिया, मनके फूल देला मुरझाई
मन्मथ भए हैं कसाई, पिया जी आके हमके बचाई
उठेला बदन में अंगड़ाई, सजन तु त गईला भुलाई