फारसी के विद्वान श्री सैयद नवेद कैसर साहब से मुलाकात
फारसी के विद्वान श्री सैयद नवेद कैसर साहब से मुलाकात
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बाबा लक्ष्मण दास की समाधि के शिलालेख की गुत्थी सुलझी और रजा लाइब्रेरी की सर्वधर्म समभाव संरचना के शोधकर्ता का पता चला
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संयोगवश कहिए या भाग्य से सैयद नवेद कैसर साहब से मेरी मुलाकात हो गई। 9 दिसंबर 2020 बुधवार को दोपहर मैंने सोचा था कि बाबा लक्ष्मण दास की समाधि पर फारसी भाषा में जो पत्थर लिखा हुआ है उसे पढ़वाने के लिए मैं रामपुर रजा लाइब्रेरी में जाकर किसी विद्वान से इस बारे में चर्चा करूँगा। रजा लाइब्रेरी में जाकर मैंने एक सज्जन को कार्यालय में उस पत्थर की फोटोकॉपी दिखा कर कहा ” यह फारसी का शिलालेख है ,मैं इसे पढ़वाना चाहता हूँ।”
उन सज्जन ने अपने कक्ष में ही एक दूसरे सज्जन की मेज की तरफ इशारा किया और कहा “इस कार्य के लिए आप इन से मिल लीजिए।”
मैं उन सज्जन के पास गया और उन्होंने अपनी बगल में बैठे हुए एक अन्य सज्जन से मेरे कार्य में मदद करने के लिए कहा । वह सज्जन श्वेत-श्याम दाढ़ी-मूँछें और बालों से घिरे हुए थे ,उत्साह से भरे थे ,चुस्ती और फुर्ती उनके अंदाज में झलक रही थी। सहृदयतापूर्वक मेरे कार्य में मदद करने के लिए इच्छुक हो गए । कागज हाथ में लिया और समझना शुरू किया । कागज देखते ही बोले “इस को पढ़वाने के लिए तो जैन साहब भी आ चुके हैं । यह नहीं पढ़ा जा सका था । ” जैन साहब से उनका तात्पर्य श्री रमेश कुमार जैन से था जो इतिहास के विषयों के एक उत्साही शोधार्थी हैं । फिर पूछने लगे “आपका नाम क्या है ? कहाँ से आए हैं ?”
मैंने तब तक उन्हें पहचान लिया था । मैंने पूछा “आप नवेद कैसर साहब हैं ?” वह बोले “हां ।”
मैंने कहा “मेरा नाम रवि प्रकाश है । ” बस इतना सुनते ही नावेद कैसर साहब आत्मीयता के भाव से भर उठे । “आप ही हैं जिनके कमेंट बहुत ज्यादा आते थे । मैंने कहा ” हाँ, और आप भी क्या खूब लिखते थे ! हम उसे पढ़ते थे और कमेंट करते थे।” यह चर्चा रामपुर रजा लाइब्रेरी फेसबुक पेज की हो रही थी जो लॉकडाउन के समय में खूब चली । बस फिर क्या था ,नवेद कैसर साहब ने अपनी कुर्सी हमारे पास डाली और कागज गंभीरता पूर्वक देखना शुरू किया।
शिलालेख क्योंकि बाबा लक्ष्मण दास की समाधि पर काफी पुराना है और फारसी भाषा में लिखा हुआ है अतः इसकी प्रमाणिकता बहुत ज्यादा बढ़ जाती है । मैं इसी उद्देश्य से इस पत्थर की लिखावट को पढ़ने के लिए प्रयासरत था । कई वर्ष पूर्व मैंने जनश्रुतियों के आधार पर या कहिए कि सुनी-सुनाई बातों के आधार पर बाबा लक्ष्मण दास चालीसा की रचना की थी। इसमें मैंने उन्हें श्री सुभान शाह मियाँ का शिष्य बताते हुए उनके देहावसान के उपरांत बहुत अद्भुत और अनोखी रीति से उनके अंतिम संस्कार के समय का वर्णन किया था। मैं चाहता था कि कुछ प्रामाणिक तथ्य भी इसके साथ जुड़ जाएँ।
नवेद कैसर साहब ने बहुत ध्यान पूर्वक शिलालेख की फोटोस्टेट कॉपी को पढ़ने का प्रयत्न किया । एक स्थान पर नवेद कैसर साहब पढ़ते-पढ़ते अटक गए और उन्होंने कहा कि कविता का तुकांत नहीं मिल रहा है। ऐसा जान पड़ता है कि कोई अक्षर गायब हो रहा है। मैंने उन्हें अपने मोबाइल में पत्थर का खींचा गया चित्र दिखलाया और वह खुशी से उछल पड़े । फोटो में एक स्थान पर उंगली रखते हुए वह बोले ” यह हल्का सा निशान इस चित्र में साफ दिख रहा है, जो फोटो स्टेट में बिल्कुल ही गायब हो चुका था।”
चीजों को समझने के लिए नवेद कैसर साहब को रजा लाइब्रेरी के ही एक अन्य विद्वान श्री इरशाद साहब से परामर्श की आवश्यकता जान पड़ी । मुझे लेकर वह उनके पास गए और अब दो विद्वान फारसी के उस शिलालेख को पढ़ने का प्रयास कर रहे थे । बीच में मैं निरंतर उनकी बातें सुन रहा था । मैंने कहा “जो शब्द भी जितने भी जैसे भी समझ में आ रहे हैं, आप बताते जाइए। पूरा शिलालेख भले ही न पढ़ा जाए लेकिन उसका जितना भी अभिप्राय हमारी समझ में आ जाएगा ,वह पर्याप्त होगा।”
नवेद कैसर साहब की मेहनत रंग लाई। इरशाद साहब के साथ उनकी अनेक शब्दों को पढ़ते समय एक प्रकार से भिड़ंत भी हुई। इरशाद साहब कुछ शब्दों के अर्थ दूसरे प्रकार से कर रहे थे लेकिन नवेद साहब ने उनसे कहा कि यह अर्थ नहीं हो सकता। मैं उन दोनों की बातें सुन रहा था किंतु हस्तक्षेप करने की स्थिति में नहीं था । इरशाद साहब भी फारसी के विद्वान थे, अतः नवेद कैसर साहब शब्दों के जो अर्थ लगा रहे थे उन पर एक प्रकार से इरशाद साहब की सहमति के बाद पूर्णता की मोहर लगी । बाद में स्वयं नवेद कैसर साहब ने इस बात को स्वीकार किया कि दो लोगों के बैठ कर इस शिलालेख को पढ़ने की कोशिश किए बगैर कार्य आगे नहीं बढ़ सकता था। वास्तव में एक-एक शब्द को पढ़ने में बल्कि कहना चाहिए कि एक-एक अक्षर को तलाश करने में दोनों को काफी मेहनत करनी पड़ी।
इस बात पर सहमति बनी कि एक प्रकार का काव्य इन पंक्तियों में इस शिलालेख में लिखा गया है :-
वरहलते मुर्शद -ए – बाशाने शाही
पए तारीखे करदम बयाने गाही
निदा आमद ज़ेहातिफ ईं बगोशम
गरीके बहरे इन-आम-ए इलाही
उपरोक्त पंक्तियाँ फारसी में लिखित हैंं लेकिन तुकांत अच्छी तरह मिल रहा है , यह बात तो समझ में आ ही रही है । इस तरह तुकांत से तुकांत मिलाते हुए शब्दों को खोजा गया और यह अपने आप में एक बड़ा कठिन कार्य था । नावेद कैसर साहब मुस्कुराते हुए बीच-बीच में मुझसे भी पूछते रहते थे बल्कि कहिए कि बताते रहते थे कि देखिए तुकांत मिल रहा है ! कविता में यही तो खास बात होती है । मैं उनकी सूझबूझ से प्रसन्न था।
शिलालेख में लछमन शब्द लिखा हुआ ठीक पढ़ने में आ रहा था। लछमन बन कोहसार यह शब्द पढ़ने में आ रहा था । इसी से मिलता जुलता शब्द बई कोहसार अथवा बाहमी कोहसार भी पढ़ने में आ रहा था ।
एक शब्द था रहलते मुर्शद। यह भी इरशाद साहब ने पढ़कर नवेद कैसर साहब की पुष्टि की । रहलत का अर्थ मृत्यु होता है । एक वाक्य का अर्थ यह हुआ कि मृत्यु शान से हुई ।
कोहसार शब्द का अर्थ पहाड़ होता है। इरशाद साहब ने मुझसे पूछा ” लिखे हुए में कोहसार शब्द आ रहा है । क्या बाबा साहब की समाधि किसी पहाड़ी पर है ? ”
मैंने कहा “पहाड़ी तो नहीं है ।”
वह बोले “अर्थ में तो यही लिखा हुआ है ।”
फिर उन्होंने पूछा “किस प्रकार की संरचना वहाँ है ?”
अब मैं समझ गया कि शिलालेख का लेखक क्या कहना चाहता होगा । वास्तव में संतों की समाधियाँ जमीन से ऊपर उठ कर ऊँचाई में गुंबदनुमा बनती हैं। बाबा लक्ष्मण दास की समाधि भी इसी प्रकार से गोलाई लिए हुए एक पहाड़ी की तरह दिखाई पड़ती है और इस कारण उसके लिए कोहसार शब्द का प्रयोग किया गया।
1950 में लछमन इस कोहसार में आए ,एक वाक्य यह भी बताता था ।1950 का अभिप्राय विक्रमी संवत 1950 से हो सकता है, मैंने सुझाया और यह बात मान ली गई । इस प्रकार 1950 से 2077 विक्रमी संवत तक 127 वर्ष बीत गए ।
यह तो तय था कि रहलत शान से हुई। इस बात से बाबा साहब की समाधि ग्रहण करने के समय अद्भुत और अनोखी बातें हुईं, यह भी स्पष्ट हो जाता है ।
इनकी रहलत की तारीख के लिए मैंने यह बयान किया यह बात भी पढ़ने में आ रही थी। मेरे कानों में आवाज आई कि यह इनाम -ए- इलाही अर्थात ईश्वर के इनाम के समुंदर में विलीन हैं। इस प्रकार का अर्थ भी शिलालेख से स्पष्ट हुआ।
दोनों विद्वानों का कथन था कि यह शिलालेख बाबा लक्ष्मण दास के किसी शिष्य द्वारा लगवाया गया है । इस पर लिखा हुआ है :- तारीख के लिए मैंने यह बयान किया अर्थात उनकी मृत्यु किस तिथि को हुई इसको लिखने के लिए यह पत्थर लगाया गया है।
पत्थर पर कृष्ण शब्द स्पष्ट रूप से लिखा हुआ मिला । इसके आगे अस्पष्ट था । यद्यपि जब मैंने सुझाया कि पक्ष हो सकता है क्योंकि कृष्ण पक्ष अपने आप में एक संपूर्ण शब्द है, तब बात स्पष्ट नहीं हो पाई ।
इरशाद साहब ने एक स्थान पर सुभान शब्द लिखा महसूस किया । दरअसल मैंने पूछा था कि क्या इस शिलालेख पर सुभान शाह मियाँ का कोई जिक्र आता है कि यह सुभान शाह मियाँ के शिष्य बाबा लक्ष्मण दास की समाधि है ? इरशाद साहब एक शब्द को सुभान पढ़ना चाहते थे लेकिन नवेद कैसर साहब का कहना था ” जब तक चीज अकाट्य रूप से पढ़ने में नहीं आ जाती, हम कोई बात मुँह से कैसे निकाल सकते हैं ?” दरअसल गंभीर शोध कार्य में एक-एक कदम बहुत तर्क-वितर्क तथा फूँक-फूँककर आगे बढ़ाना होता है।
1310 हिजरी 18 शव्वाल स्पष्ट रूप से पढ़ने में आया । यह बात मुझे पहले भी मुरादाबाद निवासी श्री फरहत अली खाँ ने पढ़ कर बता दी थी । उन्होंने इसको 5 मई 1893 में परिवर्तित करके भी तिथि निकाली थी । लेकिन फरहत अली खाँ का कहना था कि उन्हें केवल उर्दू आती है तथा फारसी का ज्ञान नहीं है ।
नवेद कैसर साहब से मुलाकात में फारसी के एक नहीं बल्कि दो विद्वान रामपुर रजा लाइब्रेरी में उपलब्ध हो गए और काफी हद तक फारसी के शिलालेख की गुत्थी सुलझ गई ।
एक स्थान पर फारसी के गरीके शब्द से वर्ष गिने गए । प्रारंभ में इरशाद साहब ने शब्दों को पढ़ने में कुछ दूसरा विवरण प्रस्तुत कर दिया जिससे 1719 का योग बैठ रहा था। किंतु जब इस काव्य को दोबारा देखा गया और नवेद कैसर साहब ने भी जब कुछ आपसी परामर्श के द्वारा निष्कर्ष निकालने की कोशिश की ,तब 1310 का योग बैठा। योग 1000 + 200 + 10 + 100 अर्थात 1310 था ।
कहना न होगा कि इतनी माथापच्ची भला कौन कर सकता है । यह तो केवल नवेद कैसर साहब की जुझारू शोधवृत्ति है, चीजों को गहराई में जाकर समझने और समझाने का उनका उत्साह है बल्कि कहिए कि मेरे साथ उनकी गहरी आत्मीयता ही है जिसके कारण उन्होंने बहुत प्रेम के साथ तथा अपनी गहरी शोधप्रियता के साथ न केवल स्वयं बल्कि अपने सहयोगी श्री इरशाद साहब का भी काफी समय लेते हुए शिलालेख को पढ़ने में मेहनत की और सार्थक परिणाम जिसके कारण निकल सके।
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रामपुर रजा लाइब्रेरी की संरचना में सर्वधर्म समभाव *:-
* नवेद कैसर साहब से बातचीत करते हुए एक और चर्चा नवाब हामिद अली खाँ तथा हामिद मंजिल के बारे में होने लगी। रामपुर के पुराने किले के बारे में चर्चा हुई ।इन सब पर नावेद कैसर साहब ने खूब लिखा है । इसी बीच मैंने एक प्रश्न कर दिया “नावेद कैसर साहब ! यह बताइए कि क्या ऐसा कोई प्रमाण है कि नवाब हामिद अली ख़ाँ ने हामिद मंजिल बनवाते समय उसकी मीनारों पर हिंदू, मुसलमान, सिख और ईसाई धर्मों के प्रतीक मंदिर मस्जिद गुरुद्वारा और चर्च की छवियाँ अंकित करने के निर्देश दिए थे ?”
नवेद कैसर साहब इस प्रश्न को सुनकर मुस्कुराए और बोले “करीब बीस साल हो गए, मैंने ही पहली बार रजा लाइब्रेरी को निहारते समय अचानक बात को गौर किया था। मैं रजा लाइब्रेरी की इमारत को देख रहा था और देखते देखते अचानक मेरी नजर इन छवियों पर पड़ी । इनमें मुझे सबसे ऊपर मंदिर ,उसके बाद गुरुद्वारा, फिर चर्च और फिर मस्जिद नजर आने लगी । मैंने काफी देर तक इस मीनार को देखा और फिर मैं खुशी से उछल पड़ा था । मैंने वास्तव में एक बहुत बड़ी खोज कर ली थी । इस बात को मैंने तत्कालीन रामपुर रजा लाइब्रेरी के विशेष कार्याधिकारी श्री वकार उल हसन सिद्दीकी साहब को बताया । वकार उल हसन सिद्दीकी साहब मेरी इस खोज से बहुत खुश थे तथा प्रभावित भी थे। उन्होंने इस तथ्य को स्वीकार किया तथा इमारत में चारों धर्मों के समावेश की बात को स्वीकार किया। उसके बाद तो यह तथ्य अब सर्व स्वीकृत है कि इस इमारत पर चारों धर्मों के पूजा स्थलों के प्रतीक अंकित हैं और इस तरह यह सर्वधर्म समभाव की विचारधारा को दर्शाती है । ”
सुनकर मैंने नवेद कैसर साहब को उनकी शोधपरक दृष्टि के लिए बधाई दी और कहा ” इमारतों को देखने तो बहुत से लोग आते हैं मगर प्रतिदिन उनके आसपास घूमने वाले लोग भी उसकी बारीकी में नहीं जा पाते तथा उसके पीछे जो गहरी दार्शनिकता निहित होती है उसका अनुमान नहीं लगा पाते । आपने इमारत को देखकर उसमें एक उदार विचारधारा की खोज की ,यह बहुत बड़ा काम है ।”
मेरी बात से नावेद कैसर साहब को काफी संतुष्टि थी और होनी भी चाहिए क्योंकि वास्तव में शोधकार्य सरल नहीं होते। इसमें काफी दिमाग लगाना पड़ता है।
मैं नावेद केसर साहब के अनुपम शोध तथा उनकी अनुसंधान के लिए उत्सुक प्रवृत्ति को नमन करता रहा । तदुपरांत मैंने श्री नावेद कैसर साहब तथा श्री इरशाद साहब को हृदय से धन्यवाद देते हुए उनसे विदा ली तथा ईश्वर से मन ही मन प्रार्थना की कि रजा लाइब्रेरी के परिसर में यह विद्वान महानुभाव अपनी समर्पित तथा असाधारण सेवाएँ प्रदान करके इस पुरातन पुस्तकालय की शोधात्मक उपादेयता को सिद्ध कर रहे हैं। श्री नावेद कैसर साहब और श्री इरशाद साहब को नमन।
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लेखक : रवि प्रकाश , बाजार सर्राफा
रामपुर (उत्तर प्रदेश )
मोबाइल 99976 15451