फागुन है
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सरसों फहरें मुरझाय खड़े, किलकारि पड़ें तब फागुन है,
पग खेवट के जब झूमि पड़ें, बिनु पान किये सखि फागुन है;
जब डूबि पड़े सधवा विरले, गुल के रग में तब फागुन है,
बुढ़वौं कि सखी जब चैन लुटे, हँसि के कहि दे तब फागुन है।
जब पीतक फूल फुलाइ रहें, हँसि के कहि दे सखि फागुन है,
मकरंद चखै जब भी सुरभी, वह स्वाद लखै सखि फागुन है;
तितली पुलकाय रही बदनें, जब टूटि पड़े सखि फागुन है,
मन में बिहराय कभी मदने, सखि भागि चले तब फागुन है।
पिय की बिरही बनि बैठि चली, अनमाय सखी तब फागुन है,
मन खीज उठे पिय से मिलने, सिसकारि परे तब फागुन है;
नित नैन तकें दरवाज खड़े, सुर में लय है तब फागुन है,
बहका फिरता तप ताप लिये, पवनाभ चले सखि फागुन है।
अबला-दुबला बवराय खड़े, लुढ़कें भरि अंक सिखावन है,
भव भाँग नशे जब टूटि पड़ें, विषपान सखी यह फागुन है;
जब बैर बढ़े अपनेपन से, चिनगार उड़े तब फागुन है,
जब चैन लुटें रति में हँसि के, सखि जानि पड़े तब फागुन है।
सुधि मोर मना जब भी तुमसे, इठलाय कहे मन भावनि है,
तन की गरमी घुलती मन में, सुख पावति बैरनि साँसनि हैं;
जब नैन तकें तिरछे-तिरछे, हँसि के फिरि जात जु फागुन है,
मसि में कवि के रति डूबि परे, मुसुका न सखी यह फागुन है।
…“निश्छल”