“फ़ुरक़त” ग़ज़ल
जाने क्यूँ लोग, मिरे दिल को यूँ दुखाते हैं,
बिन किसी बात के ही, साथ छोड़ जाते हैं।
रस्मे-उल्फ़त का कहाँ इल्म, हुस्न वालों को,
हमीं है इक, मगर जो, राब्ता निभाते हैं।
इश्क़ उनको नहीं है, मान लूँ आख़िर कैसे,
आके ख़्वाबों मेँ मुझे अब भी वो सताते हैं।
ख़त-किताबत भले ही बन्द हो चुकी अब तो,
इश्क़े-सफ़हे पे पर गुलाब हम सजाते हैं।
अश्क़ उसके हैं, सो करता हूँ जज़्ब आँखों मेँ,
सोज़-ए-दिल है, मगर फिर भी मुस्कुराते हैं।
उससे कहना न ये अहवाले-दौर-ए-फ़ुरक़त,
सवाल कर के हम जवाब ख़ुद सुनाते हैं।
दिल के खँडहर मेँ गूँजती हैं, सदाएँ उसकी,
दर-ओ-दीवार भी रह-रह, मुझे चिढ़ाते हैं।
बुलबुलें कल ही कह रही थीं बहार आई है,
अब न मौसम कोई हरगिज़ मुझे सुहाते हैं।
चराग़ दर पे, जलाता हूँ इसी “आशा” मेँ,
मुद्दतों बाद भी तो, लोग, लौट आते हैं..!
“फ़ुरक़त” # जुदाई, वियोग, separation
रस्मे-उल्फ़त # प्रीत की रीत, traditions of love
राब्ता # रिश्ता, relationship
इश्क़े-सफ़हे # प्रेम का पन्ना, page of love
जज़्ब # सोख लेना, to absorb
सोज़-ए-दिल # हृदय-वेदना, agony of heart
अहवाले-दौर-ए-फ़ुरक़त # जुदाई के समय का हालचाल, stare of affairs during aloofness
सदाएँ # आवाजें, sounds, voices etc.
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