फसल बारूद की
ग़रीबों को हमेशा तुम अंधेरों में सुलाते हो
उन्हीं के खून से घर में दिये अपने सजाते हो
लड़ाई का दिखावा तुम हमेशा खूब करते हो
फसल बारूद की आपस में’ सब मिलकर उगाते हो
ग़रीबों को मयस्सर है नहीं दो जून की रोटी
मसालेदार काजू साथ में दारू उड़ाते हो
तरक़्क़ी कर नहीं पाए अभी तक पांच बरसों में
चुनावों में हथेली पर तुम्हीं सरसों उगाते हो
वतन की राह में कोई फरेबी आ नहीं सकता
हमें क्यों मज़हबों की बेवजह घुट्टी पिलाते हो
उजाला गांव में मेरे अभी तक हो नहीं पाया
बनाकर बिल बड़ा सा फिर जमा आधा कराते हो
हुआ था खेल छुड़वाने पकड़वाने का’ जनता को
रहम को भूलकर मज़लूम से दौलत कमाते हो