फर्क पड़ता है
“सुबह आठ बजे से निकली अब तीन बजे आ रही हो?कालेज के बाद दो घंटे कहाँ थी?” मोहित ने पूछा
“भाई, देखा तो आपने निर्मल के साथ थी। वही छोड़ने आया था। साथ ही कविता को भी उसके घर छोड़ना था..।”
“छाया, हज़ार बार समझा चुका हूँ कि इस तरह इतनी देर तक घर के बाहर रहना उचित नहीं।आजकल सभी जानते हैं कालेज का टाइम टेबल। क्यों मौका देती हो मुहल्लेवालों को बात बनाने का?”
आज मोहित गुस्से के साथ तनाव में भी था
“भाई,निर्मल कोई गैर नहीं ,मंगेतर है मेरा। और अगर चली गयी उसके साथ चाय पीने तो क्या गलत कर दिया?”इस तरह टोकने से छाया भड़क गयी
“गलती है तुम्हारी। रोज -रोज इस तरह देर से आना,कभी निर्मल तो.कभी कोई और दोस्त के साथ घर आना…..जानती भी हो अब तो मुहल्ले के घरों में काम करने वाले नौकर तक तुम्हारी बातें करने लगे हैं।”
“आप भी तो देर से आते हो ।पर आपको कोई कुछ न कहता।जब मन आया ,आते-जाते रहते हो। तब आपको कोई फर्क नहीं पड़ता ।है न!मर्द हो न आप..!!”आखिरी शब्दों में छाया का कटाक्ष मोहित को चुभा
“हाँ, मर्द हूँ और इसीलिए मुझे फर्क पड़ता है जब कोई मेरी बहन.को चरित्रहीन और संस्कार हीन कहता है। फर्क पड़ता है मुझे जब मेरी शिक्षित बहन अपनी मर्यादा और इज्जत को भूल ,केवल खोखले बराबरी के दंभ में बही चली जा रही हो।”अपनी भीगी पलकें छुपा मोहित कमरे से निकल गया।