फर्क पड़ता है!!
अक्सर कहते हैं लोग,
किसी के विरुद्ध हो रहे ,
व्यवहार पर,
हमें क्या फर्क पड़ता है!
सामान्य तौर पर,
नही करते प्रतिकार,
हो रहे उस दुर्व्यवहार पर,
जबकि पीड़ित अपेक्षा,
रहता है कर,
लेकिन जिससे अपेक्षा थी,
वह अनमने मन से आगे जाता है बढ,
और व्यक्त करता है अपना विचार,
हमें क्या फर्क पड़ता है।
बात आई गई हो जाया करती है,
परन्तु कुछ लोगो को रह जाति है टिस,
अगर हमने किया होता हस्तक्षेप,
तो हो सकता था घटना का पटाक्षेप,
किन्तु वह व्यक्ति जो था समर्थ,
समस्या के समाधान के लिए,
उसके दिलचस्पी नही थी समाधान में,
तब पनपता है अवसाद,
लगता है पक्षपात,
भेद भाव और शोषण कि अनुभूति,
महसूस करते हैं लोग पिडा कि अभिव्यक्ति,
उन्मादी लगता है,उसका कार्य व्यवहार,
ऐसे में एक दिन,
जब वो भी होता है इसका शिकार,
तब होता है उसे पिडा का अहसास,
तो चाहता है वो,
कोई उसके सहायता को आगे बढे,
लेकिन कोई आता नहीं सामने,
तब उसे दिखाई देता है,
अपना भी चेहरा आईने में,
उसने कब निभाए हैं,
अपने दायित्व सिद्दत से,
पर खिसियाते हुए देता है उपदेश,
कैसे सुधरेगा देश,
क्या जा रहा संदेश,
यदि ऐसे ही निर्विकार बने रहे,
तो सहना पडेगा सभी को,
यह तौर तरीका,तब
लगता है उसका तर्क,
अजीबोगरीब,
आखिर जब हम किसी के,
दुख सुख में शामिल होने से,
करने लगते हैं परहेज,
तो ऐसा होता रहता है,
समय कब किसी को वख्स्ता है,
जलति हुई लकड़ी सिर्फ स्वयं नहीं जलति
अपितु दूसरों को भी जलाती है,
बस बारि आने पर,
यह अहसास कराति है,
इसलिए,
जब भी कोई पिडित कि उपेक्षा करे,
तो समझ लेना,
इसका यह नजरिया,
एक दिन उसे भी,
इस दौर से गुजरने का एहसास कराएगा,
और उसका यह सोचना,
मुझे क्या फर्क पड़ता है,
काफी महंगा पड़ेगा है,
क्योंकि कोई उसके साथ भी,
खड़ा नहीं दिखाई देगा,
तब शायद उसे भी,
महसूस होगा की,
फर्क पड़ता है !!फर्क तो पड़ता है जनाब।