प्रेरणा
घनीभूत बादल था मै
यहाँ नही तो वहाँ बरसता !
दोष नही प्रकृति थी मेरी
बिखरना था मै कही बिखरता !!
स्निग्ध स्नेह से सिक्त तुम
सिमटी थी किसी आँगन में !
एक हौले से आमन्त्रण पर
बरस गया था उस सावन में !!
बह गया था जीवन मेरा
बन के रसधार कोई नयी !
देख प्रतीक्षित कोई वीथिका
तोड़ के बांध थी धारा बही !!
गिरी तभी थी तेरी लट से
जो बन्दे अनुबंधन की !
सिमट गयी है दामन मे
बन के प्रेरणा जीवन की !!
गुथी हुई है हर पंक्ति मे
भगिमा तेरे अंग अंग की !!
तेरे कदमों की आहट है
धड़कन मेरी हर कविता की !!