प्रेयसी पुनीता
जब पास तुम ना होती हो तो
मैं क्या से क्या हो जाता हूँ,
भाव शून्य के साये में
कुछ यूँ सा मर जाता हूँl
कभी लाड आता बच्चों पे
कभी प्रेम रति पे आता है,
कहां कहां भावों में भटकता
यूँ पागल सा हो जाता हूँ
निश काली छा जाती है
मैं घबरा सा जाता हूँ,
तन्द्रा तज निशचर बनके
कुछ यूंही लिख जाता हूँl
भविष्य ढूंढ़ते रहता हूँ
आजकल दीवारों में,
नक्शा बनता हर दिन है
कुछ पानी के फव्वारों मेंl
सुख-साधन नीरस हो जाते
और मैं बोगस हो जाता हूँ,
शब्द नहीं कैसे बतलाऊँ
मैं क्या से क्या हो जाता हूँl
गौर किया होगा तुमने
मैं कुछ उल्टा हो जाता हूँ,
प्रत्यक्ष प्रेम कटौती कर
अप्रत्यक्ष कवि बन जाता हूँl
फिर भी मानो मेरे भावों को
जो सब कुछ कह जाती है,
तुम फूल पुनीता जैसी हो
मैं मुरझा नीरस हो जाता हूँl
शब्द संकुचित भावों का है
मैं कुछ भी कह जाता हूँ,
उत्तर नहीं हैं इस प्रश्न का
मैं ऐसा क्यों हो जाता हूँl
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👉 Written by Mahendra Kumar Rai
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