प्रेम
माँ सुनो न,
आज बापू, बाजार में मंगरु चाचा
को मार ही बैठते,वो तो लोगों ने मिन्नतें की
तब जाकर छोड़ा!!
थाली में चावल डालते
वक़्त ,वो जरा चौंकी, फिर अपने लड़ाके पति
को देख, गर्वित सी, एक टक निहारती रही,
चमचे से, उसके हिस्से के थोड़े चावल भी
अब यूँ ही गिरे जा रहे थे!!!
मन्नू के बापू की छाँव का सकून, थाली में बन रहे
अनावश्यक चावलों के ढेर से बेख़बर हो चला था।
और,
खुद के, एक मजबूत संबल से घिरे
होने के अहसास से, वो मन ही मन खुश भी लग रही थी।
अभी कुछ दिनों पहले की ही तो बात है, पड़ोस की अकेली बुधिया को, किस तरह दो शोहदे , रात के अंधेरे में उठा ले गए थे!!!
ये सोच कर ही वो सिहर उठी।
प्रेम की परिनिष्ठित भाषा, उस अनपढ़ के पास कहाँ थी।
बस आँखे और लरजते
हाथ, शब्दों की जगह ले बैठे थे।
भला बुरा, सही गलत, सब एक पल के लिए, पीछे
छूट चुका था।
अभावों से ग्रसित कच्ची दीवारों व छतों में,
प्रेम, एक आध पल को, यूँ ही बेशक्ल सी,
हाज़िरी दे ही जाता है।