लकीर
उन्मुक्त गगन में उड़ते पंछी
न जाने बटती सीमा को ।
तभी तो उड़ते फिरते हैं
खुले गगन में यूं बेखौफ ।
नहीं कोई भी सीमा इनकी
खुले गगन में उड़ते हैं ।
पल में पाक तो पल में भारत
नहीं बांधती रेखा इनको ।
कुक्कुर, बिलैय, सर्प, पीपीलिका
नहीं बांधती इनको भी ।
न ही तो किसी देश की सीमा
न ही मिट्टी की गंध भी ।
दो देशों के बीच की खाई
पनपी नफ़रत बिछड़े भाई ।
इंसानों में बढ़ती हिंसा
सीमा पर लगता है वीज़ा ।
होतें गर हिन्दू या मुस्लिम
गर होतें मानव जैसे ।
भेदभाव का बीज गर
बोया होता मन में तो ।
लेना होता वीज़ा भी
हर देश में जाने का इनको।
मानव जैसा मन रखते गर
बांट ये देते नभ, जल को ।
दीवारें न लांघ यह पाते
वीज़ा भी लगता इनको ।
कितना अजब ये दृश्य होता
जंतु गर मानव – सा होता ।
सोचो गर ऐसा हो जाए ।
लग जाए पहरा हर ओर ।
पंछी पशु अरि बन जाएं
धरती हो या नीला व्योम ।
चारों तरफ अफरा – तफरी हो
नभ भी नहीं उन्मुक्त ही हो ।
रेखा बांट दे नभ को भी
जाल में हो जब अंबर भी ।
सोच के भी ये परे सोच है
भयावह कितना मंजर है ।
सरहद में बंट गया है इंसान
नस – नस में विष सम रक्तजल है ।
करना है ऐसा कुछ हमको
कोई लकीर न खींच सके ।
न ही ही मन में न ही तन पे
न ही देश की सीमा पे ।
रोष मिटाना होगा हमको
होश में आना होगा हमको ।
प्रेमभाव, सद्भाव से रहना
सीखना होगा खग से हमको ।