प्रेम
सुनो प्रेम..
तुम अब जब भी आना
किसी सूरत में ढल के मत आना
मत आना किसी प्रेमी या पति का चेहरा ओढ़कर
मत आना किसी भी रिश्ते की चादर ओढ़कर
कि इन चेहरों में तुम्हें तलाशते
उम्र बीत जाती है,
पर नहीं बीत पाता
वो इंतजार,
तुम्हें महसूस करने का इंतजार
तुम्हें पाने का इंतजार..
तुम आना.. तुम आना हवाओं में घुलके
हौले से मुझे छूके चले जाना
तुम आना आसमान की बदरी बनके
और मुझे भिगोके चले जाना
तुम आना कलियों में छुपकर
और मेरे अस्तित्व को खिलाके चले जाना
तुम आना चाँद-तारों की चादर बनकर
और मेरे अंधेरे को भी रोशन कर देना
तुम आना रातों को जुगनू बनकर
और मेरी हथेली पे टिमटिमाना
तुम कभी नदिया बनकर मुझे बहा ले जाना
तो कभी आँधी बनकर उड़ा ले जाना
कभी भोर का उजाला बनकर आना
तो कभी साँझ की बेला का विश्राम
कभी किसी दरगाह पे माँगी दुआ बनके
तो कभी मंदिर में जलता दिया बनकर आ जाना,
कभी मुस्कान बनकर आ मिलना
तो कभी खामोशी…
कभी इस जग की सीमा में आ मिलना
तो कभी शून्यता के विस्तार में आ जाना
सुनो प्रेम
तुम आना, तुम रोज आना
बस किसी चेहरे को ओढके मत आना…
सुरेखा कादियान ‘सृजना’