प्रेम!
देखती रही मैं नदी को
बे-परवाह बहते हुए,
चुप चाप एक टक दूर तक
बस निहारती रही
जाने कैसे बह रही थी
बस एक दिशा में
ना किसी की चिंता
ना किसी से मतलब
बस एक दिशा में
बहती रही वो नदी।
मैं ठहरी रेगिस्तान की
मुझे कहाँ पता क्या होता है
नदियों का बहना
और धरती को चीर के
एक दिशा में निकलना
आस पास हरा भरा करना।
देखती रही उस नदी को
जिसे अपनी फ़िक्र कहाँ थी
जिसे बस मिलना था
दूर कहीं सागर में
और करना था उसे
अपने प्रेम को सार्थक
बस एक इस जन्म में ही
चाहे उसके लिए उसे
कोई भी ग़म उठानी पड़े
या कोई परीक्षा देनी पड़े।
मैं ठहरी ‘फ़िलोफोबिक’
मुझे कहाँ ज्ञात कि
क्या हैं प्रेम और उसमें
पड़ने का सुख या एहसास
और उसके लिए कष्ट झेलकर
भी ख़ामोश बस प्रेम करना।