प्रेम
प्रेम सदा कामनारहित है
यह निर्मल उर का विलास है
यह अनुक्षण बढ़ता जाता है
दुनिया को देता प्रकाश है
यह न कभी टूटता बीच में
यह प्रतिपल अखण्ड रहता है
यह आत्मावत् सूक्ष्म, हमेशा
सबके मानस में बहता है
इसे किया जा सकता अनुभव
लेकिन कहा न जा सकता है
जो कहना चाहता है, वही
‘नेति—नेति’ कहकर थकता है
गुण यौवन धन रूप स्वार्थ वश
जो जन प्रेम किया करते हैं
प्रेम न करते वे, वास्तव में
वे वासना जिया करते हैं ।
— महेश चन्द्र त्रिपाठी