प्रेम
ना जाने कितने रक्त बहे,
कितने पर शमशीर चले,
पर रोग ना छुटा इस पथ का।
लाइलाज रोग यह ,
फिर भी सब रोगी बनने को तैयार।
हाथ बंधा था ज़ंजीरों से,
फिर भी संभाले ना कोई,
उलझे कितने उलझन में,
फिर भी राह ना छोड़े कोई।
ऐसा यह रोग प्रेम का,
खुशियां भी निर्भर अपनी,
दुसरे पे,
दर्द न देता इस ज्यादा कोई,
टूट जाते ना दिल कितने का,
फिर भी सभी आशिक़ बनने को तैयार।
ना जाने कितने को लुटा,
कितने घर बर्बाद किए,
फिर भी इस आग में,
कितनों ने अपने जीवन कुर्बान किए।