प्रेम
प्रेम जगत की रित यही, प्रेम भये सब होय
यह तो निर्मल धार है, शितल करे सब कोय।
निश्छल हृदय प्रेम बसे, कपट न जिसको भाय
जैसे मीरा बावरी, गिरधर हृदय समाय।
प्रेम त्याग का रूप है, सहज न इसकी राह
मीरा विष् भी पी गई, बिना किए परवाह।
भक्त और भगवान की, ऐसी ही है प्रीत।
निर्धन सुदामा को मिले, कृष्ण जैसे मीत।
– विष्णु प्रसाद ‘पाँचोटिया’