प्रेम
प्रेम
प्रेम का न परिभाषा न अर्थ है।
प्रेम में दिखे न, कभी स्वार्थ है।
प्रेम ही तो, आधार है सृष्टि का;
बिन त्याग के तो, प्रेम व्यर्थ है।
प्रेम तो कारण है, सम्मान का।
हर सच्चे व झूठे, अरमान का।
निःस्वार्थ प्रेम बसे,इस जग में;
सिर्फ मात-पिता व संतान का।
जिसको नहीं, निज खून प्यारा।
दर-दर भटके वो,बनके बेचारा।
अकेलापन घेरे, निज जीवन में;
मिले न कभी उसे,कोई सहारा।
सौ में नब्बे प्रेम,स्वार्थ सिद्ध है।
प्रेमी-प्रेमिका, यों ही प्रसिद्ध है।
प्रेम तो है, बस मन की आशा;
ये आशा,होती न कभी वृद्ध है।
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स्वरचित सह मौलिक;
✍️…… पंकज कर्ण
……………कटिहार।