प्रेम-२
कालिंदी, खेतों की पगडंडियों पर भरी दोपहरी नंगे पाँव तेज रफ्तार से चली जा रही थी।
दुधमुँहे बच्चे को, अपने सीने के पास, एक कपड़े से बाँधे और माथे पर उसके बापू के लिए खाना रखकर, बड़ी चपलता से इन टेढ़े मेढ़े रास्तों में , सधे अंदाज में अपने खेत की ओर बढ़ रही थी।
तभी दूर से, उसको अपना पति खेत में काम करता नजर आने लगा।
चाल में खुद-ब-खुद थोड़ी और गति आने लगी।
इन सब बातों से बेखबर,
राखाल, भुट्टे के खेत में, हसिया लिए फसल के पास उग आई गैर जरूरी झाड़ियों और घासों को हटाने में व्यस्त था।
पसीने से लथपथ उसका गठीला बदन सूरज की रोशनी में नहाकर चमक रहा था।
कालिंदी, अब एक पेड़ की छाँव के नीचे बैठ कर ,उसे कुछ पल के लिए निहारने लगी, फिर शरमा कर , अपने बच्चे की ओर देखने लगी, जो थोड़ा कुनमुनाया, फिर उसने भी आँखे खोल दी।
तभी राखाल, अपने शरीर की धूल मिट्टी साफ करके उनके पास आकर बैठ गया।
घर से लाये हुए मांड में मिले हुए चावल के निवाले उसके गले में बड़े चाव से उतर रहे थे।
कालिंदी, उसके पसीने से भीगे शरीर को गमछे से पोंछ रही थी।
पेड़ ने भी अब धीरे-धीरे हिलना शुरू कर दिया।
दोनों नि:शब्द एक दूसरे को देख कर मुस्कुरा रहे थे।
अभाव, गरीबी और बेबसी, कुछ क्षण के लिए ,इनको छोड़ने को मजबूर दिखे,
और फिर कोसते हुए चिलचिलाती धूप में कुछ दूर जाकर बैठ गए।।।