पास ही हूं मैं तुम्हारे कीजिए अनुभव।
संतोष भले ही धन हो, एक मूल्य हो, मगर यह ’हारे को हरि नाम’ की
ग़ज़ल
डॉ सगीर अहमद सिद्दीकी Dr SAGHEER AHMAD
*अब न वो दर्द ,न वो दिल ही ,न वो दीवाने रहे*
मारे ऊँची धाक,कहे मैं पंडित ऊँँचा
इंसान और कुता
नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर
सब गुण संपन्य छी मुदा बहिर बनि अपने तालें नचैत छी !
सत्य, अहिंसा, त्याग, तप, दान, दया की खान।
Compromisation is a good umbrella but it is a poor roof.
आज इंसान के चेहरे पर चेहरे,
ये मेरे घर की चारदीवारी भी अब मुझसे पूछती है