प्रेम विरह के खत
तू क्या जाने
ओ रे ऊधो
विरहा जीवन की ये तड़फ
ऐसे धड़के मेरा जिया
जैसे सावन भड़के तड़क-फड़क।
उठती यौवन की चिंगारी
जलादे उपवन
धू धू धड़क-धड़क ।
बेबस अखियाँ
ढुंडती उसको
आता जाता वो,
जिस सड़क सड़क ।
तू क्या जाने
ओ रे ऊधो
बेबस लफ्जो की ये उमस
खोया जीवन
उसका चिंतन
दिन-रात पलकों
से टपक टपक।
सावन गुजरा
शरद आ चली
मेरा जीवन
उजड़-बिखर ।
प्रेम नही
उन शब्दों का
जो शास्त्रों में लिखे
इधर उधर
तू क्या जाने
ओ रे ऊधो
चांदनी रातों की ये तड़फ
डसती यामिनी
गिरते तारे
तोड़ें नशों को
तड़क-तड़क ।
एक बूंद प्रेम मिलन की
करदे बंजर महक चहक ।
तू क्या जाने
ओ रे ऊधो
बिरहा जीवन की ये तड़फ।