प्रेम रस जागे
घर से जब भी जाता हूंँ बाहर,
उसके हृदय में याद आ बसती है,
तेज धूप में छांँव के जैसे,
आने की राह एकटक-सी तकती है,
मन-ही-मन कुछ कहना चाहे,
प्रेम रस में दुःख सह न पाए,
देखन को अच्छी भली दिखती,
श्रृंगार रूप में ढ़ल न पाए,
व्याकुल हो-हो जाए बस तकती रहती,
कैसे सुध लेकर प्रेम जगाती है,
कितनी घड़ियांँ गुजार रही है,
एक-एक गलियाँ देख चुकी है,
सूना-सूना जग मन में लागे,
साथ मिले तब प्रेम रस जागे ।
#बुद्ध प्रकाश; मौदहा, हमीरपुर ।