” प्रेम बावरी “
” प्रेम बावरी ”
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तेरी सूरत की चांदनी अब बिखर रही है
मेरे रोम-रोम में जादू अब जैसे जगा रही है
तुझे देखे बिन हालत कैसी अब कैसे कहूं ?
ओ मेरी धड़कन अब तेरी ही जैसे गीत सुना रही है ।
मैं हुआ बावरा तुझको ढूंढू चारो ओर
तू कुंज गली ना जाने छिपी किस ओर
अधरो से मौन नैनो से पढ़ती नैनो की भाषा
ओ प्रेम बावरी सरगम जैसे मुझको सुना रही है ।
वो फूलों की है मल्लिका किसलय कोमल सी
सुनहरी धूप सी फैली शहर में उसकी लटों की
सुध बुध खो दिया हर कोई गुजरी जब सड़क से
ओ सत्येन्द्र सावरी खुद से जैसे मुझको चुरा रही है ।
कजरारे नैनो वाली भौहों से तीर चलाती है
प्रेम पिपासा से व्याकुल भौरों को मार गिराती है
मधुर तान अब छेड़ रही प्यासे अपने अधरो से
ओ स्वर्ण सुंदरी आगोश में लेकर जैसे मुझको सुला रही है।
कंचन काया मृगनयनी कुमुद कामिनी लगती है
कस्तूरी सी खुशबू उसकी चारो ओर बिखरती है
प्यासे नैनो से देखे जैसे चन्दा चकोर की ओर
ओ स्वाति की बूंदों जैसे प्यास हमारी मिटा रही है
चंचल चितवन मधुर ध्वनि कानों में वो घोलती है
प्रेम समर्पण के भावों से राज हृदय के खोलती है
छुई मुई बदन है उसका सकुचाती वो गुड़ियां सी
ओ आंचल फहराकर जैसे मुझको धूपछांव से बचा रही है।
“””””””” सत्येन्द्र प्रसाद साह (सत्येन्द्र बिहारी)”””””””””””