प्रेम प्रतीक
प्रेम प्रतीक
ताज़महल को मानते, सभी प्रेम आधार।
लेकिन सब नहीं जानते, क्या है सच्चा प्यार?
मूरख मानुष मानते, जिसको प्रेम प्रतीक।
लहू सना इक मक़बरा, कैसे इश्क़ अतीक?
मुर्दा पत्थर काटकर, भर दी जिसने जान।
कटे सभी वो हाथ ही, जिसने दी पहचान।।
क़ब्रगाह में हो खड़ा, करते हैं इज़हार,
लेकिन सब नहीं जानते, क्या है सच्चा प्यार?
शाहजहाँ का प्रेम तो, झूठ खड़ा बाजार।
एक नही मुमताज़ थी, बेगम कई हजार।।
उसके पहले बाद फिर, रखे कई सम्बंध।
प्रेम नहीं बस वासना, केवल था अनुबंध।।
जर्रा-जर्रा ताज का, करता खुद इक़रार,
लेकिन सब नहीं जानते, क्या है सच्चा प्यार?
सच्ची मूरत प्रेम की, जपे सभी जो नाम।
राम हृदय सीता बसी, सीता में बस राम।।
ताज़महल निर्माण में, कटे हुनर के हाथ।
सेतु में सहयोग कर, मिला राम का साथ।।
राम कृपा से गिलहरी, हुई अमर संसार।।
लेकिन सब नहीं जानते, क्या है सच्चा प्यार।
माँ सीता के प्रेम में, विह्वल करुण निधान।
सेतुबंध रामेश्वरम, अनुपम प्रेम निशान।।
प्रेम शिला जल तैरते, सागर सेतु अपार।
नहीं मिटा इतिहास से, डाले रिपु हथियार।।
लेकिन सब नहीं जानते, क्या है सच्चा प्यार?
कवि पंकज प्रियम
(*अतीक-श्रेष्ठ)