प्रेम पिपासा
मेरे मन में मची हलचल, मेरा मन पागल।
तुझे ढूँढे नयन हर पल, मेरा मन पागल।
हिरणी सी चलती बलखाती।
जैसे निर्मल प्रीति की पाती।
किसी शायर की लगती ग़ज़ल,
मेरा मन पागल।
तुझे ढूँढें नयन हर पल, मेरा मन पागल।।१।।
गल्ह तेरे आरक्त सुकोमल,
अधरो पर मुस्कान हैं निश्छल
तू तो संगम में गंगा जल,
मेरा मन पागल।
तुझे ढूँढे नयन हर पल, मेरा मन पागल।।२।।
मादकतामय यौवन तन पर।
तड़ित गिराती नित्य ही मन पर।
जल घट से गिरे छलछल,
मेरा मन पागल।
तुझे ढूँढे नयन हर पल, मेरा मन पागल।।३।।
बासंतिक मुख पर हरियाली।
कर्ण सुशोभित कंचन बाली।
उफ़! कैसी हँसी खलखल,
मेरा मन पागल।
तुझे ढूँढे नयन हर पल, मेरा मन पागल।।४।।
नयन तेरे कजरारे प्यारे।
मेघ सरिखे कुन्तल कारे।
मनोभूमि, मेरा मरुथल,
मेरा मन पागल।
तुझे ढूँढे नयन हर पल, मेरा मन पागल।।५।।
हे! मृगनयनी ; किसलय कामिनी।
आसव पूरित गात है दामिनी।
कोई सरिता बहे कलकल,
मेरा मन पागल।
तुझे ढूँढे नयन हर पल, मेरा मन पागल।।६।।
गौर वरण पे मुखरित आभा।
तिमिर मिटा दे वह अचिराभा।
सुरनदी है नहीं दलदल,
मेरा मन पागल।
तुझे ढूँढे नयन हर पल, मेरा मन पागल।।७।।
✍️ संजीव शुक्ल ‘सचिन’ (नादान)
मुसहरवा (मंशानगर)
पश्चिमी चम्पारण, बिहार