प्रेम परिभाषा
मैंने प्रेम को
अनुराग-विराग, आसक्ति-विरक्ति,
मिलन-बिछोह से कहीं दूर
बहुत दूर पाया
मैंने देखा,
मर्यादा के बंधनों में प्रेम व्यथित रहा
देह की पीड़ा
आत्मा की ग्लानि रही
मैंने पाया
मृत्यु उपरांत भी प्रेम
औपचारिक कोई प्रथा
अथवा
पिशाच की तृष्णा रही
मैंने देखा प्रेम को
स्वप्न और यथार्थ के बीच
रोज़ पिसते हुए
अपेक्षाओं और उपेक्षाओं की
रस्सा-कस्सी में घिसते हुए
मैंने पाया
प्रेम स्मृतियों में भी
जीवित रह न सका
अनुभूतियों की सूलियों में
प्रेम अपना अस्तित्व खोता रहा
प्रेम भावविहीन, अन्तविहीन
निर्झर बहता कोई निर्वात-सा
मेरे भीतर रहा
मैंने प्रेम को खोजा
और ख़ुद को ही खो दिया
अंततः
शब्दहीन हो
भावों की तिलांजलि कर
जब मैंने मौन का आश्रय लिया
प्रेम स्वतः मेरी ओर चलने लगा