प्रेम तुम्हारा …
प्रेम तुम्हारा….
प्रेम तुम्हारा अद्भुत अनुपम,
बिना कहे सब कह जाता है।
अधर फड़कते कंपित होते,
भाव नयन से बह जाता है।
बिसराकर जब बीती बातें,
मैं आगत पर कदम बढ़ाती।
प्रेम तुम्हारा सम्मोहन बन,
पलट वहीं फिर ले जाता है।
जग के तानों से घबराकर,
याद तुम्हें जब मैं करती हूँ।
ध्यान तुम्हारा तपते तन पर,
मेघ सरीखा छा जाता है।
शांत उदधि-सा नेह तुम्हारा,
भाव-लहरियाँ बनतीं-मिटतीं।
रूप-चाँदनी छिटकी हर सूं,
मन वहीं रमा रह जाता है।
चित्रांकित जब तुम मुस्काते,
मैं चित्रलिखित-सी हो जाती।
सुघर मौन संलाप हमारा,
अनुगूँज मधुर भर जाता है।
दृग-संपुट हैं कितने कोमल,
भरे अजस्र भावों का सागर।
बूंद एक जब इधर न आती,
मन-घट रीता रह जाता है।
रातों को घुप्प अँधेरे में,
मैं मूँद नयन जब सोती हूँ।
मूक उतरते पलकों पर तुम,
एकांत सँवर तब जाता है।
साँस शून्य से टकराती जब,
मुझको तब गुमान ये होता।
लेती करवट छवि तुम्हारी,
रोमांचित मन खिल जाता है।
यूँ ही छवि मन आँक तुम्हारी,
जब-तब तुमसे बतियाती हूँ।
दुखी – खिन्न प्राणों को मेरे,
एक सहारा मिल जाता है।
चंचल इस जीवन-नौका में,
यूँ ही साथ सदा तुम रहना।
तुम-सा खेवनहार मिले तो,
भव-सागर भी तर जाता है।
माना दूर बहुत तुम मुझसे,
पर प्राणों में सदा बसे हो।
झाँक हृदय में जब-तब अपने
साथ तुम्हारा मिल जाता है।
यूँ जीना आसान न जग में,
पग-पग पर कंटक-जाल बिछे।
मिल जाए प्रेम-प्रसून जिसे,
जीवन उसका तर जाता है।
– © सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ.प्र. )
“काव्य अनुभा” से