प्रेम के पल
ज़िन्दगी में जो सँजोये प्रेम के पल नित्य मैंने,
पल वही मिलकर सभी क्यों अब मुझे ठगने लगे हैं |
हाय ! इस निष्ठुर नियति ने क्यों अकारण ही छला है ?
ठोकरों के घाव से तन देख कैसे यह गला है |
स्वप्न सब बिखरे पड़े हैं जिन्दगी वीरान लगती,
कामना के शीर्ष से हिम की तरह गलने लगे हैं ||
बंधनों की कसमसाहट से कभी मैं रो न पाया |
खो न जाऊँ मैं कहीं डर से कभी – भी सो न पाया |
भीड़ कितनी, लोग कितने मैं अकेला सा खड़ा हूँ,
स्वप्न सारे आस के संताप में जलने लगे हैं ||
रख लिया पतझड़ स्वयं ही सौंपकर मधुमास तुमको |
मैं पराजित हो गया देकर विजय विश्वास तुमको |
इस व्यथा के द्वार से हर आह निकली बस दुआ बन,
हम थके दिनकर सरीखे सांझ में ढलने लगे हैं ||
✍️ अरविन्द त्रिवेदी
महम्मदाबाद
उन्नाव उ० प्र०