प्रेम की हत्या
मैंने खुद को कई बार पकड़ा है
खुद में ही तांका झाकी करते हुए
कितनी ही बार मैंने
खुद की कलाइयां मडोडी
और पूछा है खुद से
ये किस की तलाश है तुम्हें
वो कौन है जो पुकारता है तुम्हें
एक लंबी खामोशी
और वो जो मैं ही हूं, घूरता है मुझे
और खुश्क आवाज़ में बोलता है
शिनाख्त कर रहा हूं … हत्या का
तुम हत्यारिन हो
तुमने हत्या की है …
रूह में बसे प्रेम का
अपने पिंजर में छुपाया है तुमने
वो सदियों पुरानी उचित अनुचित का
जंग लगा भोथरा खंजर
मैंने जर्द चेहरे पे मुस्कान ओढ़ते हुए कहां
फूल को मरना ही पड़ता है
फल लाने के लिए
जर्द पत्तों को गिरना ही होता है
नए हरे कोपलों को आने के लिए
धरती को फटना ही होता है
अंकुर और पानी की सरलता धरा पर पहुंचने के लिए
इसी तरह मेरे प्रेम को मरना ही था
उसके प्रेम के फल, कोपल और पानी के लिए
~ सिद्धार्थ