प्रेम किसी से हो सकता है !
प्रेम किसी से भी हो सकता है,
चाहे विवाहिता ही क्यों न हो ?
क्योंकि प्रेम तो अपरिमेय है,
यह किसी थ्योरम (प्रमेय) से
बंधे नहीं है !
प्रेम के मसले
दरअसल प्रेम तक ही
सीमित होते हैं !
दुनियावी बवालों,
सियासती हलालों
और मज़हबी सवालों से
प्रेमी अछूते ही रहते हैं !
प्रेम सियासतदां नहीं ही बने,
तो ठीक है !
प्रेम हर मज़हब के साथ रहे;
अन्यथा,
प्रेम को खुद में
एक अलग धर्म होना चाहिए !