रूह ए आईना
आईने से
मेरा झगड़ा है
दिखाया क्यों उसने
मुझे अक्स झूठा ,
रूह-ए-आईना मेरा
दिखला गया
हकीक़त ,
दिल के कोने मे
वो दाग़
साफ़ नज़र
आता है ,
वक़्त की धुकनी ने जिसे
बुझने न दिया
सुलग रहा बरसों से
वो लम्हा ,
रूह को लम्हा दर लम्हा
मार रहा ,
मरी हुई नब्ज़ का
जिस्म ढो रहा हूँ मै……
नम्रता सरन ” सोना “