प्रेम का फिर कष्ट क्यों यह, पर्वतों सा लग रहा है||
प्रेम का फिर कष्ट क्यों यह, पर्वतों सा लग रहा है||
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देख दूजा गात कामुक, मन अगन जब जग रहा है|
प्रेम का फिर कष्ट क्यों यह, पर्वतों सा लग रहा है||
सभ्यता को छोड़ पीछे,
ताक पर सम्बन्ध रख कर|
बिन किये पड़ताल कोई,
बंध का अनुबंध रखकर|
है प्रणय पथ आज ऐसा, प्रेम ही नित ठग रहा है|
प्रेम का फिर कष्ट क्यों यह, पर्वतों सा लग रहा है||
है तरुण मन आज विलसित,
भोग की बस लालसा से|
वासना वेधित हृदय फिर,
क्यों व्यथित हैं दुर्दशा से|
जानकर परिणाम दुष्कर, क्यों भ्रमित निज पग रहा है|
प्रेम का फिर कष्ट क्यों यह, पर्वतों सा लग रहा है||
अन्तशय्या पर पड़ी अब,
शिष्टता हो लुप्त जैसे|
पश्चिमी वायु में बहकर,
भद्रता अब सुप्त जैसे|
सद्य अनुशीलन मनन का, दिग्भ्रमित निज मग रहा है|
प्रेम का फिर कष्ट क्यों यह, पर्वतों सा लग रहा है||
✍️ संजीव शुक्ल ‘सचिन’
मुसहरवा (मंशानगर)
पश्चिमी चम्पारण बिहार