Sahityapedia
Sign in
Home
Search
Dashboard
Notifications
Settings
27 Sep 2018 · 19 min read

प्रेम का तीसरा रंग

वह छत की बालकनी के कोने के पास खड़ी थी। उसके घर की छत हमारे घर की छत से केवल 15 फीट दूर थी। बीच से गुज़रती एक छोटी गली दोनों घरों की छतों को अलग कर रही थी। उसके धुले हुए खुले लम्बे केश हवा की दिशा में उड़ से रहे थे और उसके हाथ उसके चेहरे पर आते हुए बालों को रोकने का असफल प्रयास कर रहे थे। मैं उसके दोनों हाथों में हरे रंग की चूड़ियों की खनखनाहट के अनुनाद को सुन सकता था। वह किसी भी तरह से अपने लम्बे केशों को एक जूड़े में बांधने का हर प्रयास कर रही थी। वह लाल मुद्रित डिजाइनर सलवार कमीज में साक्षात् देवी स्वरूप लग रही थी। पूर्व में उगते हुए सूर्य देवता का लाल रंग उसके चेहरे पर प्रतिबिंबित हो रहा था ऐसे ही जैसे सुबह सुबह की पहली किरण ने किसी गुलाब को अपनी लालिमा से भर दिया हो। उसके सीने पर कोई ओढ़नी ना होने पर उसकी छाती का उभार स्पष्टता से उसकी परिपक्व युवा अवस्था को जतला रहा था। उसके सीने पर किसी प्रकार के ढकाव ना होना मेरे लिए कोई आश्चर्य की बात नहीं थी क्योंकि आधुनिकता की मांग अनुसार ही लड़कियों और महिलाओं ने अपनी ऐसी उपयोगी सहायक को त्याग दिया था। वह मेरी उपस्थिति से पूर्णतया से अनभिज्ञ थी।
वह शायद 360 डिग्री घूमना चाहती थी लेकिन 15 फीट दूर खड़े एक अजनबी से ऑंखें मिलते ही उसका घूमना 160 डिग्री पर अचानक बंद हो गया। उसकी हिरणी जैसी आँखों से मेरी आँखों की मुलाकात हो गयी और ओढ़नी की अनुपस्थिति में उसके दोनों हाथ स्वभावतः अपने वक्षों को ढांपने में लग गए। वह नज़रें चुराते हुए एक दम से नीचे बैठ गयी फिर भी मेरी आँखों से ओझल ना हो सकी। उसकी इस असमंजस की स्थिति पर मैं हँसे बिना नहीं रह सका।
मुझे हँसता देख वह शर्मीले अंदाज के साथ मेरी आँखों में अपनी आँखें डाल छत की सीढ़ियों के पीछे जल्दी से गायब हो गई। वह गयी तो सही पर मुझे अपने लंबे काले केश और गुलाबी खूबसूरत चेहरे के सपनों में विचरण करने को छोड़ गयी।
===========================================================

आम तौर पर मैं छत पर कभी कभार ही जाता था। इस अप्रत्याशित मुलाकात के कारण मैं उस रात सो नहीं सका। रात भर अपने मन में बोये कांटों के बिस्तर पर खुद को पा रहा था। उसकी पहली झलक के कारण मुझे मेरे चढ़ते यौवन ने पहली बार यह अनुभूति करायी की मैं यौवन के उस दहलीज़ पर खड़ा था जहाँ से स्वप्न संसार का आरम्भ होता है। पहली बार, चूंकि मैंने किशोर अवस्था को पार किया था, मुझे स्नान करने के लिए रात के मध्य में वाशरूम जाना पड़ा। स्नान करने के उपरान्त मुझे कब नींद आ गई मुझे पता ही नहीं चला। देर से उठने का आदी होते हुए भी अगले दिन मैं सुबह बहुत जल्दी उठ गया और सीधे हॉल के मध्य से होते हुए तेजी से छत की और जाती सीढियों के लिए जाने लगा। मेरी मां ने , जो पूजा-अर्चना करते हुए भी कनखियों से मुझको ताड़ रही थी, मुझको यूँ प्रात :काल में छत की और जाता देख कर अपनी दोनों भौहों चश्मे के फ्रेम के ऊपर उठा दी। आंखों और भौहों का ऐसा ताल मेल बैठा की मैं एक चोर की भांति एक ही जगह पर जड़ हो कर रह गया। मैं कोई बहाना सोच ही रहा था की दरवाजे की बजी घंटी जो मुझे सीढ़ियों की विपरीत दिशा में खींच ले गयी। मैंने घंटी बजाने वाले आगंतुक को कोसते हुए दरवाजा खोला तो सन्न रह गया। मेरी एक दिन पुरानी सपनों की रानी मेरे सामने खड़ी थी। मेरी बोलती बंद हो गयी थी। मुँह सूखने लग गया। रक्त मेरे शरीर के हर कोने में जगह खोजने लगा । बचपन में मैं अपने संगीयों के संग स्टैचू स्टैचू खेला करता था लेकिन कभी भी वास्तविक जीवन की ऐसी स्थिति उत्पन्न नहीं हुई थी। जैसे कि किसी ने कोयल के स्वर में ‘ओवर’ कहा हो, तो मुझे उसके होने का आभास हुआ। उसने कहा, “मैं रुचिका हूं।” दरवाजे पर मुझे उसका रास्ता रोके देख उसकी जोर से हँसी निकल गयी। उसकी हंसी ने मेरी मां को अपनी पूजा से विचलित कर दिया और वह पूछताछ करने के लिए तुरंत पहुँच गयी। एक मां हमेशा अपने बेटे के बारे में स्वामित्व का भाव रखती हैं, विशेष रूप से कुवांरे बेटे के बारे में तो वह हमेशा असुरक्षित महसूस करती हैं खास कर जब एक अनजानी लड़की को बेटे की निकटता में देखा जाता है। हालांकि सभी मातायें हमेशा अपने बेटों को पहला मौक़ा मिलते ही उसे शादी के बंधन में बांधने को तत्पर हो जाती हैं। मेरी माँ आरंभ से ही सामाजिक प्रवृति की थी। बाहर आना जाना , लोगों की मदद करना , सामाजिक कार्यों में दिलचस्पी लेना उनके स्वभाव में ही था। किसी भी महिला को वह तुरंत अपना मित्र बना लेती थी। आयु माँ के लिए कोई मायने नहीं रखता था। पर जब अपने लड़के का सवाल आता तो वह संरक्षी हो जाती थी। दरवाजे पर रूचिका को देख कर मां ने तुरंत उसका हाथ पकड़ लिया और उसे अंदर आने के लिए कहा। मुझे भी अपनी मां की उपस्थिति में मानसिक रूप से राहत मिली और दरवाजे से हट कर उसे अंदर आने का इशारा किया।वह अंदर क्या आयी मुझको ऐसा लगा की वह पूरा मुग़ल गार्डन अपने साथ लायी हो। वह मेरे को अनदेखा कर माँ के साथ चली गयी और मैं कोने में रखी कुर्सी पर जा कर फिर उसके सपनो में खो गया।
===================================================================
मुझे कभी-कभी आश्चर्य होता है कि कैसे दो अज्ञात महिलाएं अपने मौजूदा आयु अंतर के साथ और बिना परिचय के कुछ ही मिनटों के भीतर आसानी से आपस में घुल मिल लेती हैं। उनकी बातों का सिलसिला चलता रहा और मैं एकटक रुचिका को देखता रहा। रुचिका बिना किसी मेकअप के सफेद कुर्ती-जीन में इतनी खूबसूरत लग रही थीं कि मुझे मधुबाला की कामुकता, ऐश्वर्या राय की निर्मल सुंदरता और माधुरी दीक्षित की चुंबकीय मुस्कान सभी एक साथ रुचिका में दिखाई देने लगी। क्या यह पहली नजर में का प्यार था या फिर यौवन का मात्र आकर्षण। जो भी हो मुझे मेरे पहले पहले प्यार का दर्द महसूस होने लगा था बगैर यह समझे बूझे कि प्यार कभी भी एक तरफ़ा नहीं हो सकता था।
उसकी खिलखिलाहट ने मुझे चौंका दिया। माँ मुस्कुरा रही थी। माँ मेरी तरफ इशारा करते हुए कह रही थी ” यह तुमको पूरे शहर के बारे में बता देगा I ” रुचिका मुझे ‘बाई बाई ‘ कर लहराती हुई दरवाजे से निकल गयी। मेरी मां ने मुझे बताया कि वह अपनी मां के इलाज के लिए हमारे शहर आई थी जो स्तन कैंसर से पीड़ित थी और एक महीने के लिए उसने सामने वाला घर किराए पर लिया था। चूँकि वह हमारे शहर से अपरिचित थी वह कैंसर सम्बन्धित अस्पताल और आस पास के बाज़ार के बारे में पूछताछ करने आयी थी। मेरा मस्तिष्क और दिल दोनों इस बात को स्वीकार नहीं कर रहे थे कि रुचिका केवल पूछताछ करने आयी थी। मुझे लगा कि वह पूछताछ के बहाने मुझे देखने आयी थी। प्यार में पड़े इंसान की कल्पना के पंछी को बस केवल उड़ान भरनी ही आती है। धरती तो उसे कहीं भी दिखाई नहीं देती।
तीन सप्ताह के भीतर ही हम दोनों सबसे अच्छे दोस्त बन गए। उसने अपने बचपन, स्कूल , शिक्षा और कॉलेज के दिनों के आनंद और रोमांच के बारे में बताया। वह मुझसे तीन साल बड़ी थी लेकिन प्यार में आयु कौन देखता है। मैंने उसकी मां से भी मुलाकात की। रुचिका की माँ भी बहुत खुश थी कि उसकी बेटी को एक अजनबी शहर में एक साथ तो मिला। बहुत शीघ्र ही हम दोनों एक दुसरे से अपनी बाते भी साझा करने लगे यहां तक की कभी कभी हम अंतरंग बातों को भी साझा कर लेते थे। मैं रुचिका से वास्तव में प्यार करने लगा था। यद्यपि उसने मुझे, मुझसे प्यार करने का कोई संकेत नहीं दिया था पर मुझे यह आभास हो गया था कि वह मुझे बहुत पसंद करने लगी थी और शायद यही पसंद प्यार में शीघ्र ही बदलने वाली थी।
======================================================
वह दिन मेरे लिए दुर्भाग्यपूर्ण था या सौभाग्यपूर्ण दिन यह मैं आज तक नहीं समझा। नियति भी अपना अगल खेल खेलती है। उस एक दिन मेरी मां घर पर नहीं थी जब मुझे रुचिका का फोन आया। वह मुझे तत्काल अपने घर आने के लिए कह रही थी। बिना किसी सोच विचार के , मन में अनेकों आशंकाओं को धारण कर मैंने घर के द्वार को बंद कर दिया और उसके पास पहुँच कर ही सांस ली । उनकी मां को अस्पताल में एक दिन के लिए कुछ परीक्षणों के लिए भर्ती कराया गया था और वह अपनी माँ के लिए चंद उपयोगी वस्तुएं लेने घर आयी थी। उसने बताया कि स्नानघर का नलका बह रहा था। मेरी जान में जान आयी। मैं स्नानघर में बहते नलके को ठीक करने स्नानघर में आया। वह कब मेरे पीछे पीछे चली आयी मुझको पता ही नहीं चला। मैं पानी की पाइप की मुख्य घुंडी को खोलने की कोशिश कर रहा था जब अचानक से ऊपर के फौव्वारे से पानी की बौछार होने लगी और वह खिलखिलाकर हँस पड़ी। फिर क्या था। हम दोनों भीगते हुए एक दूसरे पर पानी छिड़कने लगे। वह मुझसे लिपट गयी। मैंने भी उसको अपने बाहों में झकड़ लिया। दोनों की सांसें एक हो चुकी थी। गीले कपड़ों की पारदर्शिता ने हम दोनों को यौन आकांक्षाओं के प्रति संवेदनशील बना दिया था । हम दोनों जैसे एक दुसरे से मानो सम्मोहित हो गए हों। ऐसी ही अवस्था में हम कब स्नानघर से निकल कर बाहर बिछे फर्श के गद्दे पर लेट गए, हमे पता ही नहीं चला।
कितना समय बीत गया मुझे पता नहीं चला। लेकिन जब मैं जागा तो एक मादकता की अनुभूति का आभास हुआ। मैं अपना ब्रह्मचर्य की स्थिति से उभर चुका था। मन में एक डर उत्पन्न हो गया। यह जो कुछ भी हमारे साथ गुज़रा क्या यह बलात्कार की श्रेणी में आएगा ? क्या वह मेरे खिलाफ शिकायत दर्ज करेगी? वह मेरे बारे में क्या सोचती होगी? इन सवालों ने मुझे डरा दिया था ।
मैं पसीने से तरबतर हो रहा था जब मैंने रुचिका को अपने कमरे से दुल्हन सा लिबास पहने निकलते देखा। सुनहरे गोटे और बूटों वाली कांजीवरम साड़ी,लम्बी मोती फूलों से गुंथी चोटी, हाथों में जड़ाऊ कंगन, कानों में सोने की लटकती बालियाँ, चांदी की करधनी और पैरों में पायल-बिछवे पहने वह साक्षात अप्सरा सी मेरे समक्ष खड़ी थी। मैं मदहोश सा उसके उस रूप को निहार रहा था। कब वह मेरे पास आयी, गले लगी और मेरे होठों पर एक गहरा चुम्बन ऐसे प्रधान किया मानो वह अपने इस समपर्ण से बहुत खुश थी। उसके इस वर्ताव ने मुझे मेरे अपराध बोध से पूरी तरह से राहत दिला दी।
वह कोयल सी चिरपरिचित बिंदास अंदाज़ में बोली, “तुम हमेशा मेरे साथ रहोगे, ऋषभ ।”
मैं केवल इतना ही कह सका, ” मैं तुमसे बेहद प्यार करता हूँ, रुचि ”
उसने फिर से मुझे गले लगाया लेकिन अब वह रो रही थी। उसका अचानक इस प्रकार से रोना मझे कुछ अजीब सा लगा। रोने में भी उसका दुल्हन रूप , उसका खिलता चेहरा मुझे अलौकिक सा लग रहा था। शायद वह अपना कौमार्य खोने से दुखी थी। मैं उससे नज़रें नहीं मिला पा रहा था इसलिए बिना कुछ कहे ही घर से बाहर निकल गया।
=========================================
अगले दिन नौकरी के लिए हो रहे एक तत्काल प्रत्यक्ष् साक्षात्कार के लिए मुझे शहर से दूर अचानक ही जाना पड़ा। अगले तीन दिनों तक मुझे वहां रहना था । ना जाने क्यों माँ को मेरी शादी की चिंता सताने लगी। जाने से पहले, मैं रुचिका से मिलने उसके घर गया। उसके घर पर ताला लगा था। मैं निराश हो गया लेकिन नौकरी के लिए होने वाले साक्षात्कार ने मुझे रुचिका को चंद दिनों के लिए भूलने पर मजबूर कर दिया। तीन दिन तक चले गहन साक्षात्कार के उपरान्त, मुझे वरिष्ठ कार्यकारी पद के लिए चुना गया और साथ ही मुझको तत्काल ही कार्यभार संभालने का आदेश सुनाया गया । मेरी ख़ुशी का कोई ठिकाना नहीं रहा। मैं, मेरी मां और रुचिका को यह समाचार देने के लिए बहुत उत्सुक था। मैंने अपने वरिष्ठों से माँ को लाने का बहाना किया और घर लौट आया। मेरी मां बेहद खुश थी। मेरी शादी करने का आखिर उनको बहाना मिल गया। वह मुझसे अपने दूर रिश्ते की बहन की लड़की के विषय मझसे बात करना चाहती थी पर मैं तो रुचिका को अपनी नौकरी की खबर सुनाने को उतावला था। माँ की बात सुनने की मेरी मनोदशा नहीं थी पर माँ आखिर माँ होती है। वह शायद सब समझ चुकी थी।
” रुचिका घर पर नहीं है, ऋषभ। ” माँ की टटोलती आँखों से आँखें मिलाने को मुझको हिम्मत नहीं हुई।
“रुचिका का पति नवीन आया था। वह रुचिका और उसकी मां को अपने साथ ले गया है। शायद दक्षिण के किसी नामीगिरामी हस्पताल में उसकी माँ का इलाज़ कराने।”
“रुचिका का पति ? रुचिका का पति ? ” मुझे काटो तो खून नहीं। मुझे लगा किसी ने मेरे दिल पर खंजर से वार किया हो। पूरी दुनिया मेरे चारों ओर घूमने लगी थी। तेज रक्त परिसंचरण से मेरा दिमाग फटने लगा था। मेरी हालत अचानक ही बिगड़ने लगी। मेरी हालत देखकर मेरी मां डर गई और अपने पड़ोसियों को बुलाया। जल्द ही मैं जांच के लिए अस्पताल में था। सभी प्रकार के परीक्षण मुझ पर किये गए पर किसी प्रकार की अस्वाभिकता नहीं पायी गयी। मुझे घर वापस जाने को कहा गया पर मुझे पता था कि घाव कहाँ पर गहरा था ।
अगले पांच सालों तक, मैं अपने काम में पूरी तरह से डूब गया। ‘विश्वासघात’ नाम के शब्द ने मेरे व्यक्तित्व पर बहुत बड़ा प्रभाव डाला। मेरी मां ने मुझे शादी करने के लिए हर तरह से मानाने की कोशिश की लेकिन रुचिका के प्रति मेरा प्यार और उसका विश्वासघात दोनों मेरे लिए एक संतुलित तराज़ू के समान थे जो मेरे तन मन को शादी के प्रति बेरूखी का रुख अपनाने को मज़बूर कर रहे थे। पर माँ के हठ को मैंने कम आँका था। मायें कभी कभी अपना उद्देश्य प्राप्त करने के लिए किसी भी हद तक जा सकती हैं यह मैंने तब जाना जब माँ ने बिस्तरा पकड़ लिया और तभी छोड़ा जब मुझसे शादी की हामी भरवा ली।
===================================================
दस साल कैसे बीते पता ही नहीं चला। निशा से शादी कर मैंने अपनी माँ की बात रख ली थी । मैंने बरकस कोशिश की कि निशा मेरे प्यार से वंचित ना रह पाये और इसका प्रमाण मेरा छः साल का बेटा ऋषित था फिर भी रुचिका के साथ बिताये पलों को मैं कभी भी अपने दिलोदिमाग से नहीं निकाल सका। निशा मेरी और से पूरी तरह से आश्वस्त थी क्यूंकि मैं उसे शादी से पहले ही, माँ के मना करने के बावजूद अपने असफल प्यार की कहानी सुना चुका था। निशा मेरी ईमानदारी की कायल थी।
इन्ही दस सालों के दौरान मेरी पदोन्नति होती चली गयी और मैं उपाध्यक्ष के पद पर कार्यरत था जब कि मुझे तामिलनाडु के उप कार्यालय का दौरा और निरीक्षण करने के लिए कहा गया। उस दौरे के बीच में मुझको एक दिन का अवकाश का मिला तो मैंने भारतीय प्रायद्वीप के तट पर मानार की खाड़ी में स्थित तमिलनाडु के रामेश्वरम जाने का फैसला किया। प्रभात का समय था। मैं समुद्र तट पर नारियल के पानी का आनंद ले रहा था जब मैंने एक जुड़वां लड़का लड़की को देखा जो नारीयल विक्रेता को मलाई के साथ नारियल देने के लिए कह रहे थे। मुझे भी हमेशा नारीयल की मलाई खाना पसंद था। शायद इसलिए जब मैंने उन्हें गौर से देखा तो अचंभित रह गया। उन जुड़वां बच्चों में मैं खुद को दस साल के लड़के के रूप में देख रहा था। कैसा आश्चार्यजनक संयोग था। लड़की और लड़के हूबहू मेरे दस वर्ष की आयु का मानो प्रतिरूप थे। मैं हम तीनों के बीच चेहरे की समानताओं के बारे में सोच ही रहा था कि मैंने एक युवती को उन बच्चों को आवाज लगाते सुना। वह जब पास आयी तो मेरी आँखों को विश्वास नहीं हुआ। ” रुचिका -रुचिका। ” उसने जब मेरी और देखा तो वह भी जड़ सी हो गयी पर शीघ्र ही उसने अपने को संभाल लिया। वह बिल्कुल भी नहीं बदली थी।
“हैलो, कैसे हो ऋषभ ?” उसने अपना हाथ पहले की तरह ही बिंदास अंदाज़ में मेरे हाथ से मिलाने के लिए बढ़ाया पर मैं जानता था कि वह कितनी खूबसूरती से अपनी भावनाओं को छिपाने का हर संभव प्रयास कर रही थी। दिल में एक चाह उपजी कि उसे गले लगा लूँ पर उसके किये गए विश्वासघात याद आते ही मैं निशब्द सा उससे दो टूक बात करने का साहस झुटाने मैं लग गया। मैंने उसकी आँखों में आँखें डाल कर उसका हाथ कस कर पकड़ लिया।
” मैं तुम्हे कभी माफ़ नहीं कर सकूंगा और ना ही तुम्हे भुला सकूंगा। पर तुम मेरे साथ ऐसा कैसे कर सकती थी ?” जैसे ही मैंने रुचिका से बात की, दोनों बच्चे अपनी मां को अजनबी से बात करते देख “डैडी, डैडी” करते हुए सामने एक आश्रय स्थल की और दौड़ पड़े।
शायद वह अपने सर के बाल पहले दिन की तरह धो कर आयी थी। वह हंसी तो उसके बालों ने उसके आधे चेहरे को ढक लिया। मुझे यह नहीं समझ आ रहा था की मुझे उस समय उसके किये गए विश्वासघात पर चिल्लाना चाहिए था या अपनी किस्मत पर रोना। वह थी कि अपनी भावनाओं को अपने चेहरे पर बिलकुल भी व्यक्त नहीं होने दे रही थी। उसका चेहरा उस समंदर के भांति शांत था जो कुछ देर पहले ही एक बहुत बड़े तूफ़ान का साक्षी रहा हो।
मैं जिज्ञासा के अंतिम छोर पर पहुँच चुका था। “वह बच्चे?” मैंने पूछा।

“वे हमारे हैं। तुम्हारे और मेरे। ऋषि और रिशा rishibha। ” यह कहते ही वह मेरे चेहरे को पढ़ने लगी। मैं विश्वास नहीं करता पर मेरे दस वर्षीय आयु के समय का काल और उन बच्चों के चेहरे मोहरे की समानता ने मुझे उसे गंभीरता से लेने को मजबूर कर दिया। इसके अलावा केवल एक माँ को ही गर्भधारण करते ही पिता का पता चल जाता है।
“क्यों ? भगवान के लिए , तुमने मुझे अंधेरे में क्यों रखा ?” मेरी आवाज रुंधने लगी। उसने मेरे होंठों पर ऊँगली रख दी। उसका स्पर्श मेरे उत्तेजित भावों को शांत करने के लिए पर्याप्त था। उसने 300 मीटर दूर एक होटल की ओर इशारा किया और मुझसे अपना अनुसरण करने के लिए कहा। चलते समय, उसने मेरा हाथ अपने हाथ में ले लिया और अचानक आँसू उसके गालों पर मोतियों के समान बिखरने लगे। मैं रुक गया ।
“क्या तुम्हारे पति को हमारे बीच हुए संबंध और बच्चों के बारे मालूम है?” मं जानने को उत्सुक था और होटल तक पहुंचने की प्रतीक्षा नहीं कर सकता था । उसने अपने आँसू अपने पल्लू से पहुँच दिए और नज़रे झुका कर कहा, “हाँ।”
उसकी यह ‘हाँ ‘ सुनते ही मेरे पैरों को जैसे लकवा मार गया हो। मेरे ऊपर बिजली भी गिरती तो मुझे कोई आश्चर्य नहीं होता पर उसकी ‘हाँ ‘ ने मेरे अहमः और आत्म सम्मान को जो ठेस पहुंचाई वह मेरे धीरज की एक कड़ी परीक्षा थी।
उसने मेरी प्रतिक्रिया देखने कोई प्रयास नहीं किया। वह कहती गयी।
============================================
“कॉलेज के दिनों से ही नवीन और मैं एक दुसरे से प्यार करते थे। हम दोनों ने एक साथ ही एम बी ए किया और दोनों एक साथ ही एक ही कंपनी में अच्छे पद पर नियुक्त हो गए। हमने शादी करने का निश्चय किया।
एक दुर्भाग्यपूर्ण दिन नवीन एक सडक दुर्घटना का शिकार हो गया। उसके अंडकोषों को गंभीर चोट पहुंचने के कारण डॉक्टरों ने घोषणा की कि वह वंश-वृद्धि में सक्षम नहीं होंगे। नवीन मानसिक रूप से तबाह हो गया था। उसने हरचंद कोशिश की कि मैं उससे शादी ना करुँ पर उस समय हमारा प्यार बच्चों की ज़रुरत से भी परे था यह वह भी जानता था और मैं भी। मैंने ही उससे शादी करने का आग्रह किया क्योंकि हम दोनों जानते थे कि हम कभी भी अलग-अलग नहीं रह सकते थे। शादी के कुछ सालों बाद मुझको यह एहसास होने लगा कि नवीन खुश नहीं था। वह अपने जीवन में किसी कमी को महसूस कर रहा था। मैं नवीन को घंटों पार्क मैं बैठ बच्चों को खेलते हुए देखती थी। उसे बच्चे बहुत पसंद थे। मैंने उसे किसी अनाथालय से बच्चा गोद लेने के लिए कहा तो तो उसका तर्क अजीब होता।
” रूचि, मैं बच्चा ज़रूर चाहता हूँ पर हम में से किसी का अपना। अपना खून। मेरा नहीं तो कम से कम तुम्हारा तो वह जैविक हिस्सा हो।”
फिर उसने गहरी सांस ली। उसने एक बार होटल की ओर देखा जो केवल 200 मीटर रह गया था और फिर अपनी बात जारी रखा,” जब मैंने तुमको पहली बार छत पर देखा तो ना जाने क्यों मेरा दिल तुम्हारे लिए धड़कने लगा था। इसे तुम्हारे साथ मेरे द्वारा किया गया धोखा कहूं या अपना सौभाग्य जो भी हो हमारा मिलन नियति के अधीन ही था।
रुचिका कहती गयी और मैं बस सुनता गया।
” जब पहली बार मैंने तुमको छत पर मुझे ताड़ते देखा था ना जाने क्यों मेरा दिल तुम्हारे लिए धड़कने लगा था। तुम मुझे उसी समय पसंद आ गए थे। शायद इसे ही नियति कहते हैं और इस नियति को हमारा मिलन मंज़ूर था। तुम्हारा मेरी और आकर्षित होना मेरे लिए वरदान के समान था। तुम्हारे साथ बिताये वह तीन सप्ताह में तुमने जो प्यार के बीज मेरे मन बो दिए थे

एक तरह से उस रास्ते पर खड़ा कर दिया था जहाँ से मैं ना तो तुम्हे छोड़ सकती थी ना ही नवीन को। मैंने नवीन से तुम्हारी बात की। वह तुमसे मिलने के लिए तैयार था पर मैंने ही उसे मना कर दिया। मेरा शादीशुदा होना शायद तुम्हे मंज़ूर नहीं होता। नवीन की मेरे तुम्हारे साथ शारीरिक संबंध जोड़ने की पूरी सहमति थी। पर सच मानो ऋषभ अगर मैं शादीशुदा ना होती और नवीन के प्रति समर्पित ना होती तो तुमसे ही शादी करती। जानबूझ कर इस सौदे में मैं ही घाटे में रही क्यूंकि मैं अपने कृष्ण की ना तो राधा बन सकती थी और ना ही रूखमणी।”
वह जानबूझकर आहिस्ता चल रही थी। होटल आने से पहले ही वह मुझे सब बता देना चाहती थी। उसने मेरा हाथ ज़ोर से पकड़ लिया।
” जब हमारा मिलन हुआ तो मुझे तुरंत सहज बोध हो गया कि मैंने गर्भ धारण कर लिया था। मैं तुम्हारे साथ बहुत सारा समय बिताना चाहती थी पर वांछित परिणाम पाते ही मैं अपराध बोध से ग्रस्त हो गयी। मेरा झुकाव तुम्हारी तरफ होने लगा था। मेरे जीवन मैं तुम्हरी उपस्थिति ने भावनात्मक रूप से मुझे विचलित कर दिया था। अगर ऐसा ही चलता रहता तो नवीन के प्रति मेरी निष्ठा और प्यार दांव पर लग जाते । इसी लिए तुम्हारी अनुपस्थिति में, मैंने नवीन को बुलाया और आंटी को सूचित कर नवीन और माँ के साथ तामिलनाडू चली आयी।”
मैं खामोश उसको सुन रहा था।
” तुम्हे याद है ना ऋषभ जब हमारा मिलन हुआ था जो मैंने क्या कहा था ?”
मैंने सिर हिला कर उसकी ओर देखने लगा।
” मैंने कहा था कि ऋषभ , तुम अबसे हमेशा मेरे साथ रहोगे और सच भी यही है। ऋषि और रिशा के रूप में तुम हमेशा मेरे साथ हो।”
मेरे मुँह में जैसे जिह्वा थी ही नहीं। मैं कुछ क्षणों तक स्तब्ध सा रह गया। ऋषि और रिशा दोनों मेरे बच्चे थे ! रुचिका के प्रति मेरी जो एक गलत धारणा इतने सालों से पल रही थी वह एक दम काफूर हो गयी। मैं उसके नवीन के प्रति बिना शर्त के गहरे प्रेम को समझने लगा था। रुचिका अब मेरे लिए प्यार और सम्मान की एक देवी थी। हम दोनों होटल की कुटीर के पास पहुंचे जहां नवीन ने मुझे बड़ी ही गर्मजोशी से गले लगा लिया जैसे वह मुझको सालों साल से जानता था । दोनों बच्चे मेरे बारे में जानने को बहुत उत्सुक थे लेकिन नवीन और रुचिका ने मेरा परिचय केवल एक दूर के रिश्तेदार के नाते उनसे कराया। हम सब ने एक साथ लंच किया था। दोनों बच्चे मेरे साथ ऐसे हिलमिल गए जैसे दूध में शक़्कर। यह शायद ख़ून का ही असर था। मुझे उनके साथ बैठना , उनकी बातें सुनना , उनके साथ खेलना एक चरम आनंद दे रहा था। मुझे ऐसा लग रहा था जैसे कि मैं अपने घर अपने बेटे ऋषित और उसकी बहन के साथ खेल रहा हूँ। मुझे उनके साथ खेलते हुए देख, नवीन और रुचिका ने यह सुनिश्चित किया कि मैं उनके साथ अधिक से अधिक समय बिता सकूं। वह दोनों मेरी मानसिकता से अवगत थे।
——————————————————

पूरे दिन मैं बच्चों के साथ था। बीच बीच में हम अपनी बीते जीवन में हुए घटनाचक्रों को आपस में साझा करने लगे। मैंने उनको निशा और ऋषित के विषय में बताया। सांझ हो चली थी। बच्चे कैरम खेलने में तल्लीन थे। मैं वापसी के वेदना को सहन करते हुए वापसी की तैयारी कर रहा था। बच्चों को पता लगा तो वह दोनों मेरे गले लग गए। रिशा की आँखें नम थी। ऋषि मुस्कुरा तो रहा था पर उसके हाव भाव से साफ़ ज़ाहिर था की वह मेरे जाने से दुखी था। रुचिका और नवीन मुझे बाहर तक छोड़ने आये। घर के प्रांगण द्वार पर अचानक से रुचिका मेरे गले लग गयी। उसके आँसू थम नहीं रहे थे। फिर वह झुकी और मेरे पैरों को हाथ लगा अपने सर पर लगा लिया। मैंने उसके गालों से आंसुओं को पोंछने के कोशिश की तो उसने फिर से मुझे कस कर झकड़ लिया। कुछ ही देर बाद उसने उस ओर देखा जहाँ नवीन खड़ा यह सब देख रहा था। नवीन की उपस्थिति उसको शायद एक आश्वासन सा दे रही थी। उसने खुद को मुझ से मुक्त किया। मेरे हाथों को अपने हाथों में ले कर वह मुझसे कतार हो कर बोली, “वादा करो ऋषभ , आज के बाद हमसे मिलने की कोशिश नहीं करोगे। यह हम सभी के लिए अच्छा है, मुझसे वादा करो, मैं तुमसे विनती करती हूं। मैं अपने बच्चों का प्यार और अपना प्यार तुमसे साझा नहीं कर सकती। नवीन जीते जी मर जाएगा। मैं उसे जानती हूँ। ” यद्यपि उसकी वह याचना अप्रत्याशित थी पर मैं उस याचना के पीछे छिपे उसके भावनात्मक तनाव को समझ रहा था। मैंने उनसे वादा किया कि मैं उनके जीवन में कभी भी दख़ल नहीं दूंगा और ना ही कभी बच्चों से मिलने की कोशिश ही करूंगा। यह मेरा उसके प्रति पूरा समर्पण था जो । हम दोनों ही जानते थी,// एक गहरी चोट के समान जीवन पर्यन्त हम दोनों को कटोचता रहेगा।
=============================================
रुचिका को दिए गये अपने वादे को निभाये लगभग १५ वर्ष बीत चुके थे। ऋषित होस्टल में था। रुचिका, ऋषि और रिशा हमेशा मेरे ज़हन में उस सौम्य फोड़े की तरह थे जो कभी कभी बहुत दर्द दे जाता था। मेरी पत्नी निशा मेरे मन को भांप जाती थी। निशा के कई बार बाध्य करने के बावजूद मैंने उन सब से मिलने का प्रयास कभी नहीं किया। मैंने उसके प्यार के समर्पण को वादा जो किया था।
=============================================
एक दिन मैं निशा के साथ अपने घर के प्रांगण में टहल रहा था जब कुरियर वाला एक सुंदर सा लिफ़ाफ़ा दे गया। निशा और मैं दोनों भेजने वाले के नाम को पढ़ कर अवाक् रह गये। लिफ़ाफ़े के बाहर नवीन और रुचिका का नाम था। लिफ़ाफ़ा खोला तो ऋषि और रिशा दोनों के शादी के दो बहुत सुंदर शादी के निमंत्रण थे।
रुचिका ने न्योता भेज कर मुझसे लिए वादे को खुद ही भंग करा दिया था। निमंत्रण पत्रों पर निवेदकों में अपना और निशा का नाम देख कर तो हम दोनों निशब्द थे। रिशा द्वारा लिखा एक पत्र भी संलग्न था जिसकी अंतिम पंक्ति थी :-
“पापा, मेरी शादी आपके और माँ निशा के द्वारा किये गए कन्यादान के बगैर नहीं हो सकती। भाई ऋषित को अपने साथ ज़रूर लाएगा। ऋषि भी यही चाहता है।
आपकी पुत्री रिशा। ”
निशा और मेरी आँखों से अश्रुधारा बह निकली।
=============================================
सर्वाधिकार सुरक्षित /त्रिभवन कौल
कृपया संज्ञान लें :-
“इस कहानी के सभी पात्र और घटनाए काल्पनिक है, इसका किसी भी व्यक्ति या घटना से कोई संबंध नहीं है। यदि किसी व्यक्ति या घटना से इसकी समानता होती है, तो उसे मात्र एक संयोग कहा जाएगा।”
===============================================
मेरी अंग्रेजी कहानी ‘Love of the third kind’ से अनुवादित।

Language: Hindi
3 Likes · 1 Comment · 643 Views

You may also like these posts

*टहलें थोड़ा पार्क में, खुली हवा के संग (कुंडलिया)*
*टहलें थोड़ा पार्क में, खुली हवा के संग (कुंडलिया)*
Ravi Prakash
#मानवता का गिरता स्तर
#मानवता का गिरता स्तर
Radheshyam Khatik
अधर मौन थे, मौन मुखर था...
अधर मौन थे, मौन मुखर था...
डॉ.सीमा अग्रवाल
आज कल परिवार में  छोटी छोटी बातों को अपने भ्रतिक बुद्धि और अ
आज कल परिवार में छोटी छोटी बातों को अपने भ्रतिक बुद्धि और अ
पूर्वार्थ
मैंने क्या कुछ नहीं किया !
मैंने क्या कुछ नहीं किया !
Mrs PUSHPA SHARMA {पुष्पा शर्मा अपराजिता}
*****नियति*****
*****नियति*****
Kavita Chouhan
कुदरत की मार
कुदरत की मार
Sudhir srivastava
किताब
किताब
Neeraj Agarwal
भोर पुरानी हो गई
भोर पुरानी हो गई
आर एस आघात
2840.*पूर्णिका*
2840.*पूर्णिका*
Dr.Khedu Bharti
प्रेम पीड़ा
प्रेम पीड़ा
Shivkumar barman
*हिंदी दिवस मनावन का  मिला नेक ईनाम*
*हिंदी दिवस मनावन का मिला नेक ईनाम*
सुखविंद्र सिंह मनसीरत
क़ज़ा के नाम पैगाम .. (गज़ल)
क़ज़ा के नाम पैगाम .. (गज़ल)
ओनिका सेतिया 'अनु '
मेरी यादों में
मेरी यादों में
ब्रजनंदन कुमार 'विमल'
रूठी किस्मत टूटी मोहब्बत
रूठी किस्मत टूटी मोहब्बत
Dr. Man Mohan Krishna
देश हे अपना
देश हे अपना
Swami Ganganiya
ये एक तपस्या का फल है,
ये एक तपस्या का फल है,
Shweta Soni
"तीर और पीर"
Dr. Kishan tandon kranti
#शून्य कलिप्रतिभा रचती है
#शून्य कलिप्रतिभा रचती है
वेदप्रकाश लाम्बा लाम्बा जी
जाड़ा
जाड़ा
डॉ प्रवीण कुमार श्रीवास्तव, प्रेम
"परिश्रम: सोपानतुल्यं भवति
Mukul Koushik
अनहोनी समोनी
अनहोनी समोनी
ओमप्रकाश भारती *ओम्*
ज़िंदगी गुलज़ार कर जाती हैं
ज़िंदगी गुलज़ार कर जाती हैं
Meenakshi Bhatnagar
नज्म
नज्म
Dr.Archannaa Mishraa
कुछ लोग ज़िंदगी में
कुछ लोग ज़िंदगी में
Abhishek Rajhans
नाज़नीन  नुमाइश  यू ना कर ,
नाज़नीन नुमाइश यू ना कर ,
पं अंजू पांडेय अश्रु
"" *सिमरन* ""
सुनीलानंद महंत
इ सभ संसार दे
इ सभ संसार दे
श्रीहर्ष आचार्य
यूं संघर्षों में पूरी ज़िंदगी बेरंग हो जाती है,
यूं संघर्षों में पूरी ज़िंदगी बेरंग हो जाती है,
डॉ. शशांक शर्मा "रईस"
छठ माता
छठ माता
Dr Archana Gupta
Loading...