प्रेम- एक अध्यात्म।
किसी इंसान के प्रति निस्वार्थ प्रेम का भाव रखना भी तो अध्यात्म है,प्रेम जो एक या दो तरफा श्रेणी में नहीं आता,प्रेम जिसे ना तो पाने की आस है ना खोने का डर, निस्वार्थ प्रेम एक ऐसा एहसास है जिसका अंत नहीं,जो बस अनंत है।
प्रेम निस्वार्थ है इसीलिए निर्भय है,जिसमें देने के लिए सिर्फ सम्मान है,प्रेम कई प्रकार के है,दुर्भाग्य ये है कि, मानव जाति बस प्रेम को सीमित दृष्टि से देखती है,ऐसे प्रेम की परिभाषा शादी-ब्याह तक आके समाप्त हो जाती है।
प्रेम,स्नेह और आदर का भाव ही है जो कुछ भावनाओं को निस्वार्थ रूप से निर्मित करता है,ना जाने संसार में कितने रिश्ते बांधे गए और निभाए भी गये लेकिन मिसाल हमेशा उन्हीं रिश्तों की बनी जहां कहा कुछ भी नहीं गया बस जीवन भर एक एहसास को निभाया गया, एहसास जो हर एक की समझ के बाहर है।
जो रिश्ता बांधा जाता है वो बंधन कहलाता है, रही बात प्रेम की तो प्रेम का संबध किसी बंधन से नहीं, प्रेम का संबंध तो बस अनायास ही बन जाता है, ये प्रेम ही तो है जो आत्मीयता से शुरू हो कर अध्यात्म तक पहुंच जाता है।
निस्वार्थ प्रेम की ये भावना किसी प्रमाण की नहीं बल्कि प्रणाम की अधिकारी है और इस प्रकार के प्रेम से ग्लानि नहीं गर्व की अनुभूति होती है, और अंत में बस यही कि:
सीधी-सादी बात है,
बस इतना ही कहता है “अंबर”,
प्रेम तो बस प्रेम है,
इसमे कहाँ है कोई आडंबर।
– अंबर श्रीवास्तव