प्रेमिका या जीवन
माना के हुनर है तुम्हे जफा की,
मुझे भी गिर कर संभलने की अदा जाती है।
आँखें पिघलती रही और तुमने जाने की जिद्द की थी,
मिटा गालों की गीली लकीरों को,
मैं तब भी तो चल पड़ा था।
हृदय के पिंजरे में बंद,
सिर पटकती लहूलुहान धड़कनें,
सांसों और सिसकियों,
को एक करती एक खामोशी।
ज़ख्मों पर अपने ही मरहम लगा कर,
मैं तब भी तो चल पड़ा था।
शिकवा नहीं तुमसे,
ना ही शिकायत है कोई,
हो तो बस एक शय ही,
ईश्वर को भी कहा वफा आती है।
माना हुनर है तुम्हे जफ़ा की,
मुझे भी गिर कर संभलने की अदा आती है।
बेजान मुर्दे की तरह मृत प्रतीत होता था,
उजाड़ ब्रह्माण्ड में लाशों की दुनिया,
चारों ओर चलती अधमरी लाशें,
मेरे हृदय पर रेंगती लोटती, ये लाशें।
हटा कर हाथों से अपनी ही लाश को,
मैं तब भी तो चल पड़ा था।
अब जीवन सफर की मंजिल कुछ और है।
गगन की उंचाईयों में तेज पवन की तरह,
तमस के सीने में धसे,
उन हीरों को छूने की मंजिल।
पथ लम्बा और समय कम है,
कठिनाइयाँ हैं और मुश्किलें हैं,
लडूंगा,
मैं तब भी तो लड़ा था।
माना के रगों में दर्द ही चुभाया तुमने,
पर जीवन के नुस्खों में हर मर्ज की दवा आती है।
माना के हुनर है तुम्हे जफ़ा की,
मुझे भी गिर कर संभलने की अदा जाती है।