देव्यपराधक्षमापन स्तोत्रम
देव्यपराधक्षमापन स्तोत्रम
नहीं मैं मंत्र ही जानूँ, नहीं मैं तंत्र भी जानूँ,
नहीं कुछ ध्यान आवाहन, कथा विनति कोई जानूँ।
नहीं मुद्रा समझ आती, नहीं व्याकुल विलापी पर-
शरण तेरी हरे संकट, यही बस बात मैं जानूँ।।1
नहीं कुछ पास धन दौलत, नहीं पूजा विधि जानूँ,
तनिक मैं आलसी हूँ तो, विधि विधान क्या जानूँ।
जहाँ गलती हुई मुझसे, जरा तुम माफ़ कर देना-
गलत बेटा भले हो पर, कुमाता माँ नहीं जानूँ।।2
सकल धरती चराचर में, तुम्हारे पूत हैं प्यारे,
उन्हीं में से यहाँ माता, चपल चंचल मैं थारे।
हमारा त्याग यूँ करना- उचित कैसे भला मानूँ
गलत बेटा भले हो पर, कुमाता माँ नहीं जानूँ।3
नहीं चरणों की सेवा की, जगत माता ऐ जगदम्बा,
समर्पित की नहीं दौलत, तुम्हारे पास माँ अम्बा।
मगर फिर भी अधम मुझसे, मुहब्बत देख के मानूँ,
गलत बेटा भले हो पर, कुमाता माँ नहीं होती।।4
बहुत सेवा समर्पण ने , हमेशा व्यग्र कर डाला,
अवस्था बीत जाने से, अभी सब देव् तज डाला।
नहीं पूजा अगर करता, उन्हीं से आस क्या बाँधूं?
कृपा तेरी नहीं हो तो, भला किसके शरण जाऊं?5
तुम्हारे मंत्र का अक्षर, अगर पड़ जाय जो कानों,
निपट चंडाल मूरख भी, मधुर वक्ता बने जानो।
महज़ इक मंत्र अक्षर के श्रवण का लाभ जब इतना-
सकल विधान जपतप से, मिलेगा क्या समझता हूँ।। 6
चिताभस्मा लपेटे जो, गरल भोजन दिगम्बर जो
जटाधारी भुजगकण्ठे, कपाली भूत धारी वो।
जगत जगदीश की पदवी, मिली है क्यूँ भला जानूँ-
तुम्हारा हाथ पाकर ही, हुए विख्यात शिव जानूँ।।7
नहीं है मोक्ष की इच्छा, नहीं कुछ चाह वैभव की,
नहीं विज्ञान की चाहत, अपेक्षा है नहीं सुख की।
हमारी याचना तुमसे, यही है मात जगदम्बे-
गुजर जाये यह जीवन, तुम्हारा नाम जपकर के। 8
विविध विधान से माता, नही पूजा ही कर पाया,
किया अपराध जो मैंने, नहीं कुछ भूल ही पाया।
कृपा दृष्टि मगर फिर भी, पड़ी अनाथ पर तेरी-
कुपुत्रों को भी माता, शरण तुम पास ही मिलता।9
विपत्ति में उलझ कर के, तुम्हें अब याद करता हूँ,
नहीं तब याद कर पाया, यही फरियाद करता हूँ।
समझना तुम नहीं सठ ये, जरा हालात को जानो-
क्षुधापीडित और प्यासा, तभी तो याद करता हूँ।।10
कृपा तेरी बनी मुझपर, यही तो बात अचरज की,
करे अपराध बेटा पर, उपेक्षा माँ नहीं करती।11
नहीं मुझसा यहाँ पापी, न तुमसा कोई पापघ्नी-
समझकर तुम महादेवी, उचित हो जो करो देवी।।12
©पंकज प्रियम