प्रेत अभिलाषाओं का
प्रेत एक जागा अभिलाषाओं का ।
कुछ मृत आस पिपासाओं का ।
आ कर बैठा है जो कांधों पर ,
प्रश्न पूछता आधे छूटे वादों का ।
ले मौन , चला मंज़िल अपनी ,
हृदय मन फ़ौलाद इरादों का ।
मार दिए जो सपने उसने अपने ,
ठोकर कदमों से ख़ाक उड़ाता सा ।
आशाएँ अभिलाषाएँ ही जागतीं हैं ।
यह ज़िंदगी तो “निश्चल” भागती है ।
ठहरती नही कभी निश्चल रहकर ,
ज़िंदगी को ज़िंदगी कब बांधती है ।
….
…. विवेक दुबे”निश्चल”@….
Blog post 5/3/18