“प्रीत-रंग”
गोरी, कोठे बैठि कै, नयन बहावै नीर,
पाती ना सन्देस कोउ, भयी दसा गम्भीर l
स्वपन एक अरु, एक बस, हय मन मा ताबीर,
बरखा हू, बिन पिय चुभत, जस जियरा मह तीर।
कासे का कहि, बावरी, हिया धरे तसवीर,
कहाँ जाये, मजबूर तन, पांव पड़ी जंजीर l
गति अद्भुत है प्रीत की, मेँहदी सी तासीर,
धीरे-धीरे, रँग चढ़ै, रे मन, काहि अधीर।
नहिं गरीब, कोऊ लखै, ना है, कोउ अमीर,
गली-गली गावत फिरैं, “आशादास” फ़क़ीर..!