प्रीत योगी मित आत्म बसाए
क्यों नीर नयन तटबंध बनाकर
कविताओं के माप में छंद लिखूं
मुझसे ना मन बंध पाएगा
हां बंध चंड हो उदंड लिखूं
हां अछूत देह है नयन सरिता
कहती है मुझसे मेरी कविता
मेरा जो मन,चाहे आलिंगन
मन मन को कर कर खंड लिखूं।।
चाह नहीं
युग जीतूं मैं किन्तु
जो जीत सकूं
तोहे प्रीत प्रिये
हार गया खुद को तुझसे
स्वार्थ है
हां अब तो हारे
मेरे प्रीत के आगे
मुझसे भी
मेरी मित प्रिये।।
उम्मीद नहीं जग के बंधन से
कोई लाभ नहीं अभिनंदन से
मणि अनमोल है सांप का किन्तु
चाहेगा सुंगध नित चंदन से
चंदन वृक्ष स्थूल है कदाचित
कैसे बच पाए इस बंधन से
विष बेल सरीखे बन जाओ तो
त्याग मोह हृदय स्पंदन से।।
जिसको मुझमें स्वार्थ दिखा
अश्कों का मोल नहीं ज्ञात उसे
सर्वज्ञ कदाचित होगा किन्तु
प्रीत रीत मोल है अज्ञात उसे
स्थिर मन में बसे एक
चंचल मन सौ स्वप्न बसाए
मन ,मन तक मत प्रीत समेटों
प्रीत योगी मित आत्म बसाए।
दीपक झा रुद्रा
कवि
छंद मुक्त विधान