प्रीत का पंछी
प्रीत का पंछी खुले गगन में उड़ता चला जा रहा है।
अपने मोती जैसे नयन से सब पर दृष्टि भी रख रहा है।
कौतूहल मन से प्रेम भिखेरता उड़ता चला जा रहा है।
तूफानों से टकराता हुआ अपने गंतव्य की ओर अग्रसर हो रहा है।
कुछ हैं जो उसके पंख कतरने का मन बनाए बैठे हैं।
उनको भी प्रेम रूपी सरोवर में गोते खिलाता हुआ उड़ता चला जा रहा है।
मार्ग के पुष्प उससे पूछते हैं तू क्यों इतनी ऊंचाइयों को छू रहा है।
कभी न कभी एक न एक दिन तू भी इस धरती में मिल जाएगा।
सौम्य मुस्कान सजोते कहता है मिल भी जाऊं इस भूमि पर तो दुख ना होगा।
मैंने तो संपूर्ण जीवन प्रेम की अभिलाषा में व्यतीत कर दिया है।
समूचे ब्रह्मांड को अपनी प्रीत के रंग में घोल दिया है।
अब अगर मृत्यु भी आ जाए तो रंज न होगा।
मेरी प्रीत की उड़ान का कदापि अंत न होगा।
समीर।