जीवन दिव्य बन जाता
कैसे कह दूं हाल मैं दिल का, क्या होता तेरे मुस्कुराने पर।
जीवन दिव्य बन जाता, ख्वाब में भी प्रणय बेला आने पर॥
ऋतु कोई भी हो, पर हमको, लगता ज्यों मधुमास है।
देख रहे दृग अपलक, फिर भी, बढ़ती जाती प्यास है॥
तेरे कोमलकांत वदन की शोभा मुझे लुभाती है।
अधरों की चपला सी चपलता, मुझ पर घात लगाती है॥
छूकर तुमको तन-मन कंपित, ज्यों जल तूफ़ां के आने पर।
जीवन दिव्य बन जाता, ख्वाब में भी प्रणय बेला आने पर॥१॥
तेरे प्रेम पाश में बंधकर, मैं दुनिया से मुक्त हो गया।
खोकर अपनी सुध बुध मैं तो, सारे जग से विरक्त हो गया॥
ज्यों जल पाकर हरित हो वसुधा, मैं तेरे रंग में मस्त हो गया।
यह क्षणभंगुर मेल नहीं, जन्मान्तर तक हृदयस्थ हो गया॥
तेरी खुशबू से महक रहा, ज्यों महके पुष्प खिल जाने पर।
जीवन दिव्य बन जाता, ख्वाब में भी प्रणय बेला आने पर॥२॥
परिणय हो या प्रणय हृदय का, पड़ता हमको फर्क नहीं।
रचना रची ये प्रभु ने जैसी, करना कोई तर्क नहीं॥
दैहिक नहीं मिलन दो मन का, आत्मा का परमात्म से।
कहॉं बयां कर सकता इसको, शब्दों के तादात्म्य से॥
‘अंकुर’ हृदयंगम होकर जो, समझे मर्म, बिन समझाने पर।
जीवन दिव्य बन जाता, ख्वाब में भी प्रणय बेला आने पर॥३॥
-✍️ निरंजन कुमार तिलक ‘अंकुर’
छतरपुर मध्यप्रदेश 9752606136