प्रीतम के दोहे
तानाशाही जो करे, मानो रावण कंश।
दंभ मिटा ख़ुद भी मिटे, बचा नहीं कुछ अंश।।//1
राजनीति के खेल में, बुरा करो मत मेल।
वरना ठहरे जो नहीं, ऐसा निकले तेल।।//2
झूठ बोलना पाप है, मिले न इसकी बेल।
अंतिम है ईनाम यह, देख लीजिये ज़ेल।।//3
भूल स्वयं को जो चले, हारे हर वह दाँव।
कौआ फँसकर जाल में, करना भूले काँव।।//4
लाज शर्म मत बेचिए, ज़िस्त बने बेहाल।
शक्ति देह की कम हुई, कैसे जन्मे लाल।।//5
सदा गिराए नीचता, खींचे ऐसी खाल।
उगे नहीं जिसमें कभी, एक प्रेम का बाल।।//6
प्रीतम तेरी सीख से, बना नेक इंसान।
गुरुवर तुमको मानकर, हारा न इम्तिहान।।//7
आर. एस. ‘प्रीतम’