प्राण निमंत्रण
प्राण निमंत्रण
चाँद तू कुछ और निखर, अपनी चंद्रिका पे इनायत कर,
उर बीच पनार के छालों को, हाथों पे सजाकर रक्खा है।
प्राण का फागुन खिल रहा, मेरी सांसों में धुंआ धुंआ सा,
प्रीत की बासंती हवाओं को , खिड़कियो पे बुला रक्खा है।
गुनकी महकी यादें संजोयी है, किताबों में अब मुरछाने को
गुलाब तू भी हंस के देख ले, पत्ता पत्ता बिखरा रक्खा है।
अरे पावस के पहले बादल ,उमङ घुमङ घिर के बरस जरा
अंतस की तृष्णा को, बारिश की बेखुदी ने तरसा रक्खा है।
बर्फ के धुऐं पे बना रही हूं हौले से आशियाँ कुछ ख्वाबों का
मेरे ही शे के सदके जाऊं मैने एक शहर भी बसा रक्खा है।
तेरे कदमों में हो तो जाऊं निछावर इन गुलाबी फूलों सी ,
खाक में मिलके भी तेरे लिये खुशबू को बचा कर रक्खा है।
घटाओं पे हया की बंदिश है,झट से चाक कलेजा कर देंगी,
इन जुल्फों की शोखी को हौले से भी तो संभाले रक्खा है।
झौंका हवाओं का उन्मन नाच रहा,लेकर सुधियां साजन की,
घूंघट में अपने चुपके से वो आधा चांद छुपा के रक्खा है।
मैं, लतर सलोनी क्यूं नी भीगूं, मधुबन के तरूवर से मिलकर
चांद चांदनी की मदिरा में इस निशा को भरमा के रक्खा है।
अब चंचल मंदाकिनी उतर रही है चुरा के मेरी चितवन को,
प्रियवर! मिलन यामिनी का तुम्हैं प्राण निमंत्रण दे रक्खा है।
डा. निशा माथुर- जयपुर ( राजस्थान)
8952874359