बिहार में दलित–पिछड़ा के बीच विरोध-अंतर्विरोध की एक पड़ताल : DR. MUSAFIR BAITHA
बिहार में दलित–पिछड़ा के बीच विरोध-अंतर्विरोध की एक पड़ताल : DR. MUSAFIR BAITHA
प्रस्तावना :
कहने को तो बिहार गौतम बुद्ध, महावीर जैसे महान शांति दूतों की धरती रही है जहाँ उत्तरप्रदेश क्षेत्र में जन्मे एवं कर्मरत रहे क्रांतिकारी बहुजन कवि एवं सोशल एक्टिविस्ट कबीरदास के नाम पर संत मत कबीरपंथ और बुद्धिवादी संत रैदास की विचारधारा भी समाज के बीच चलती रही है मगर उनका प्रकट असर तो शून्य ही दीखता है. और तो और, विज्ञान की इस इक्कीसवीं सदी के लोकतांत्रिक व्यवस्था में आकर भी बिहार ही नहीं समग्र भारतीय समाज मूलत: हिन्दू जाति व्यवस्था पर आधारित ऊंच नीच के वैषम्य एवं वैमनस्य पर उतरा असभ्य समाज है. इस प्राचीन मनुवादी हिन्दू वर्णव्यस्था का प्रभाव अभी के लोकतांत्रिक समाज व्यवस्था में भी इतना ज्यादा है कि लोग जाति और धर्म के आधार पर भयानक रूप से बंटे हुए हैं. खासकर, हिंदी बेल्ट में यह जाति आधारित खाई अधिक प्रचलन में है. बिहारी समाज तो इस बीमारी में और गहरे धंसा है. जाति-धर्म जैसे हीन मनुष्य बनाने वाले बंधन में सदियों से जकड़े हुए समाज में हमारी ऐसी कंडिशनिंग हो गयी है कि हम अपने जन्म के साथ पाए जाति और धर्म के अनुकूल ही व्यवहार करने लगते हैं, इन आधारों पर मनुष्य मनुष्य में विभेद और फर्क करने लगते हैं. इन्हीं आधारों के विरोध-अंतर्विरोध की एक पड़ताल हम यहाँ करेंगे.
बिहार के प्रमुख सामाजिक आन्दोलन और दलित संदर्भ :
बिहार में स्वतंत्रता से पूर्व त्रिवेणी संघ से लेकर आजादी के बाद आर एल चंदापुरी के नेतृत्व में पिछड़ा वर्ग आन्दोलन तथा 1974 के जेपी के कथित सम्पूर्ण क्रांति आंदोलन तक के सफर में एक जाति वर्चस्व विहीन और सामाजिक न्याय वाले बिहारी समाज की कल्पना थी। फिर, अर्जक संघ, बामसेफ जैसे संगठन भी बहुजन वर्ग को आपस में जोड़ने और सवर्ण एवं उच्च जातीय बनिया वर्ग के वर्चस्व को तोड़ने, उनसे मिली हकमारी को पाटने, अपना खोया अथवा छीना गया अधिकार प्राप्त करने के लिए बने, लेकिन लक्ष्य की दिशा में इन आंदोलनों एवं संगठनों का कोई खास सकारात्मक प्रभाव जमीन पर दिखाई नहीं पड़ा. त्रिवेणी संघ की तो शुरुआत ही तीन ‘प्रभु’ पिछड़ी जातियों यादव, कुर्मी और कोइरी (कुशवाहा) ने सवर्ण जातियों की तरह समाज में अपनी राजनीतिक, सामाजिक एवं अन्य तरीके की प्रभुता बढ़ाने की गरज से की थी लेकिन जल्द ही इसे अपनी गलती अथवा रणनीतिक भूल का ऐहसास हुआ कि अन्य कमजोर पिछड़ी जातियों एवं दलित जातियों को दरकिनार करते हुए काम करना नाजायज होगा. उसने संगठन के द्वार अन्य बहुजन जातियों के लिए भी खोल दिए. लेकिन यह संगठन एक छोटी अवधि में ही प्रभाव शून्य हो गया. त्रिवेणी संघ से आर एल चंदापुरी भी प्रारम्भ में जुड़े थे और बाद में उन्होंने पिछड़ा वर्ग आन्दोलन चलाया. पिछड़ों और दलितों को आपस में जोड़ने की उनकी सदिच्छा इस बात में झलकती है कि उन्होंने पटना के एक जनसभा को संबोधित करने लिए आंबेडकर को सन 1951 में बुलवाया था. बताया जाता है कि वहाँ बिहार के ही एक राष्ट्रीय स्तर के कद्दावर कांग्रेसी नेता, जो अम्बेकर के राजनीतिक प्रतिद्वन्द्वी थे, के बहकावे पर श्रोताओं की भीड़ से भाषण करने के वक़्त किसी ने रोड़ा चलाया था. जेपी आन्दोलन के दौरान तो सवर्ण अवर्ण दोनों वर्गों के उत्साही युवकों ने जाति सरनेम त्यागने के साथ ही अंतरजातीय विवाह जैसे प्रगतिशील कदम उठाए मगर ये क्रांतिकारी दीखते कार्यक्रम भी पानी का बुलबुला साबित हुए.
जेपी आन्दोलन से उपजे सवर्ण, पिछड़े एवं दलित नेताओं ने अपनी कुव्वत भर बाद में आन्दोलन के प्रतिदान में लाभ के राजनीतिक एवं अन्यान्य पद फल पाए. इन नेताओं ने बिहार में जाति राजनीति को और हवा दी और अब तो हाल यह है कि सम्राट अशोक, वीर कुंवर सिंह, परशुराम जयंती आदि के ज़रिए वोट की जाति राजनीति को लेकर बिहार में गोलबंदी की कोशिशें जोर-शोर से चल रही हैं. हालाँकि जाति राजनीति के तहत 1968 में देश को पहला दलित मुख्यमंत्री भोला पासवान शास्त्री के रूप में कांग्रेस शासन काल में बिहार से ही मिला. कांग्रेस को एक और दलित मुख्यमंत्री रामसुंदर दास देने का श्रेय प्राप्त है, लेकिन न तो इन दलित मुख्यमंत्रियों ने बिहार में दलित चेतना, संगठन और कल्याण को समृद्ध करने का काम किया न ही अपनी व्यक्तिगत छाप राजनीति में छोड़ी. बस नाम के ही राज्य के दलित मुखिया रहे. यह ट्रेंड देश में आज भी चल रहा है. जैसे, दलित,आदिवासी और मुस्लिम राष्ट्रपति तथा राज्यपाल वे पार्टियाँ भी अपने शासन के दौरान ला रहे हैं जो इन तबकों के विरोध में ही अक्सर प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से काम कर रहे हैं.
पिछड़ा और दलित आरक्षण – द्वंद्वात्मक स्थितियां :
बिहार में दलितों की स्थिति अभी भी बहुत बदली नहीं है जबकि राजनीति में उनका पर्याप्त प्रतिनिधित्व हो रहा है. इधर, 52% की पिछड़ी जाति आबादी के लिए जब 1990 में देश सहित बिहार में मंडल आयोग की कुछ संस्तुतियों के आधार पर सरकारी नौकरियों में आरक्षण लागू किया गया तो जैसे सवर्ण आपे से बाहर हो गये. इस आरक्षण के विरुद्ध देशभर में सवर्ण आन्दोलन हुए. जबकि मंडल आयोग की अनुशंसा जनित आरक्षण के पक्ष में दलित समाज का आम और राजनीतिक तबका भी रहा. उस दौरान बहुजन समाज की राजनीति करने दलित नेताओं ने भी मंडल कमीशन की सिफारिशें लागू करवाने के लिए खूब काम किए, इनमें कांशीराम, मायावती, रामविलास पासवान शामिल थे। जबकि तथ्य यह भी है कि अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति वर्ग को मिले आरक्षण से पिछड़ी जाति के आम लोग भी चिढ़ते रहे थे. कुछ पिछड़े तो अब भी कहते हैं कि दलितों को ‘असली’ आरक्षण मिलता है, हम तो योग्यता में सवर्णों को कम्पीट कर ही रहे हैं, आरक्षण का हमें न के बराबर लाभ मिल पाता है. महाराष्ट्र के रहने वाले एवं चर्चित अंग्रेजी किताब ‘कास्ट मैटर्स’ के लेखक डॉ. सूरज मिलिंद एंगडे (जन्म 1988), जो दलित स्कॉलर और पब्लिक इंटेलेक्चुअल के रूप में जाने जाने वाले एक भारतीय शोधकर्ता, मानवाधिकार कार्यकर्ता, आंबेडकरवादी सामाजिक कार्यकर्ता, वकील और लेखक हैं और अभी संयुक्त राज्य अमेरिका के हार्वर्ड विश्वविद्यालय में दलित मुद्दों पर शोध कर रहे हैं, बताते हैं कि मंडल आन्दोलन को उत्तरी और पश्चिमी भारत में ‘ग्राउंड फोर्स’ दलितों ने ही उपलब्ध करवाया, मंडल आयोग की संस्तुतियों को लागू करने वाले तत्कालीन प्रधानमन्त्री वीपी सिंह को भी दलित इसी कारण सम्मान देते हैं जबकि सवर्णों की तरह ही अधिकतर पिछड़ी जाति के मजबूत लोग दलितों के साथ ब्राह्मणवादी व्यवहार करते हैं, उनके साथ मारपीट करते हैं. मशहूर दलित चिन्तक डा चंद्रभान प्रसाद भी शूद्रों के वर्चस्वशाली हिस्से को सवर्णों की तरह दलितों के साथ ब्राह्मणवादी व्यवहार रखने वाला मानते हुए उनके लिए आरक्षण तक का विरोध कर डालते हैं. इस क्रम में वे मंडल आयोग के एकमात्र दलित सदस्य एल आर नायक के मत का भी हवाला देते हैं. उन्होंने आयोग की संस्तुति पर अन्य सदस्यों से अलग मत रखा था. नायक ने ऊपर की कुछ पिछड़ी जातियों को जमीन-जायदाद वाली जातियां मानकर उन्हें अलग आरक्षण देने को और उनसे नीचे की, अत्यंत पिछड़ी जातियों को कामगार बताते हुए अलग आरक्षण देने की हिमायत की थी ताकि उन्हें मजबूत पिछड़ी जातियों से प्रतियोगिता न करनी पड़े, आरक्षण का यथेष्ट लाभ मिल सके. तर्क था, मजबूत के साथ कमजोर की प्रतियोगिता न्यायोचित नहीं हो सकती. आप देखेंगे कि बिहार में जब अत्यंत पिछड़ी जाति, हजाम, से आने वाले कर्पूरी ठाकुर की सरकार बनी तो उन्होंने राज्य सरकार की नौकरियों में आरक्षण के लिए इस प्रकार की दो कैटेगरियां पिछड़ों की बनाई.
बिहार में कर्पूरी ठाकुर की सरकार के बाद बिहार की दो सबसे मजबूत जातियों यादव और कुर्मी जाति के मुख्यमंत्रित्व वाली सरकारें भी आईं, एक सामाजिक न्याय के नाम पर तो दूसरी सुशासन के नारे के साथ. सन 1990 के बाद तो ऐसी ही सरकारें राज्य में चल रही हैं, उसमें भी अभी तो दो सामाजिक न्याय और सुशासन दोनों नारे वाली पार्टियों की सरकार है लेकिन दलितों के हित में कोई अलग से स्पष्ट हितकारक नीतियाँ या कार्यक्रम नहीं हैं. कुछ थे भी कभी स्पेसिफिक तो वे अब पिछड़े तबकों के लिए भी हो गये हैं. प्रसंगवश, बताऊं कि एक मजेदार राजनीतिक परिघटना बिहार में यह हुई थी कि थी कुछ वर्ष पहले राज्य सरकार ने अनुसूचित जातियों को भी दो भागों में विभाजित कर दिया था, जिसमें चार मजबूत जातियां पासवान (दुसाध), चमार (मोची), पासी एवं धोबी को दलित कैटेगरी में रखा गया था और शेष 19 दलित जातियों को महादलित कोटि में. प्रत्यक्ष उद्देश्य यह था कि इससे आरक्षण एवं सरकारी योजनाओं, कल्याण कार्यक्रमों में लाभ सभी दलित जातियों तक पहुँच सकेगा, यह विभाजन पिछड़ी और अत्यंत पिछड़ी जातियों के बंटवारे की तर्ज पर किया गया था. प्रच्छन्न उद्देश्य जबकि राजनीतिक था, दलित राजनीति के गुणाभाग के तहत विरोधी शक्ति को मात देना था. बाद में प्रभावित चारों जातियों की ओर से आए भारी विरोध के चलते यह विभाजन रद्द कर दिया गया और महादलित की कैटेगरी विलोपित हो गयी. हालाँकि यह विभाजन यदि कायम रहता तो निश्चित ही शेष 19 अपेक्षाकृत कमजोर दलित जातियां ज्यादा लाभान्वित होतीं.
दलितों के बिहारी समाज में सम्यक अथवा जनसंख्यानुपातिक प्रतिनिधित्व की बात करें तो राजनीतिक प्रतिनिधित्व तो बिहार में संवैधानिक प्रावधानों के चलते पर्याप्त हो गया लगता है मगर समाज के विभिन्न क्षेत्रों में, सरकारी संस्थानों के निर्णायक एवं नीति निर्धारक स्थलों पर सवर्णों अथवा दबंग पिछड़ी जातियों से आने वाले लोगों का कब्जा है. सरकार के सहयोग एवं संरक्षण में चल रही संस्थाओं, सांस्कृतिक-साहित्यिक एवं खेलकूद आदि की गतिविधियों में भी दलित वर्ग को नगण्य प्रतिनिधित्व ही मिल पाता है. राज्य द्वारा पोषित संस्थाओं से बांटे जाने वाले पुरस्कारों में भी दलितों को तुच्छ अथवा नगण्य भागीदारी ही मिल पाती है. वैसे, सच यह भी है कि इस मोर्चे पर पूरे बहुजन समाज की ही स्थिति संतोषजनक नहीं है, सरकार कोई भी आए सवर्ण जाति के लोगों की ही चाँदी रहती है.
गाँवों में दलितों के प्रति पिछड़ों का विभेदक व्यवहार
पारम्परिक रूप से ब्राह्मणवादी हिन्दू जाति व्यवस्था के ‘सांस्कारिक’ लाभुक सवर्ण रहे हैं और दलित – पिछड़े इस हकमारी के चलते परेशान हाल होते रहे हैं, हानि में रहे हैं. लेकिन बहुजन समाज के बीच भी वर्णव्यस्था का जहर इस तरह से व्याप्त है कि अब भी दलित टोले उस गाँव में भी अलग हैं जहाँ कोई सवर्ण आबादी नहीं है. पिछड़ी जातियों के लोग भी सवर्णों की तरह दलितों से ‘सामाजिक दूरी’ बरतते हैं. परम्परा से अमूमन दलित भूमिहीन रहे हैं और सवर्ण एवं पिछड़ी जातियों की सेवा कर अथवा उनके खेत खलिहान में काम कर अपना गुजर बसर करते रहे हैं. यह भी कि दलित और पिछड़ी जातियों के बीच उस तरह का दुराव अथवा दूरी नहीं रही है जिस तरह कि परम्परा से सवर्ण घर पिछड़ों एवं दलितों की आबादी से एक सुरक्षित दूरी पर बसे रहे हैं. बिहार में दलितों की 23 जातियां सरकार द्वारा परिगणित हैं जिनमें से डोम, हलखोर, मुसहर और चमार के साथ तो अन्य दलित जातियां भी भेदभाव करती हैं. अन्य दलित जाति के घर तो आपको बहुजन बस्तियों में पिछड़ी आबादी के साथ मिल भी जाएँगे मगर डोम, हलखोर, मुसहर और चमार जैसी जातियों से दूरी बनी हुई है. उनसे काम तो लोग लेते हैं मगर उन्हें गन्दा रहने और गन्दा काम करने वाला मानकर उनके समीप रहने से बचते हैं. वैसे, यह भी है कि दलितों के प्रति दुराव अथवा ब्राह्मणवादी व्यवहार की इंटेंसिटी पिछड़ों में वह नहीं है जो सवर्णों में है.
छुआछूत के विभेदक व्यवहार के मामले में लोगों (सवर्ण पिछड़े दोनों) का व्यवहार विचित्र है, दोगला है. जैसे, धोबी जाति के लोगों से सछूत लोग छूत भी मानेंगे मगर उनका धोया कपड़ा पहन भी लेंगे. चमारों को अछूत तो समझेंगे मगर चमइन को उस समय अपने घरों में प्रवेश भी देंगे जब अपने घर की प्रसव पीड़ित स्त्री का साइत (गर्भस्थ शिशु के स्त्री योनि से निकलने की प्रक्रिया में सहायता) करवाने की जरूरत होगी. नवजात शिशु की मालिश भी अछूत चमइन हाथों से करवाने का रिवाज रहा है. लगता है, घृणा से अधिक परम्परा का वहन एवं इन व्यवहारों में लोगों का कंडिशनिंग होना भी इस असहज कर स्थिति की एक वजह है.
बिहार में जातीय नरसंहार
जाति भेद और ऊंच नीच की भावना से चालित समाज में लड़ाई झगड़े और दंगे फसाद उस समय होना स्वाभाविक है जब कमजोर जातियों की पीठ पर कोई राजनीतिक संगठन अथवा सामाजिक संगठन खड़ा हो जाए. दक्षिण बिहार में ऐसा ही हुआ और उस क्षेत्र के अर्द्धसामन्ती समाज को जिन्दा रखने वालेअ सवर्ण और पिछड़े सामंतों ने दलितों का सामूहिक नरसंहार किया जब वे अपने अधिकार पाने और कर्तव्य पर उतरने के लिए कमर कस कर तैयार हुए. इसको सामन्ती शक्तियों ने दुस्साहस माना, अपनी मान मर्यादा और मूंछ की ऐंठ में कटौती मानी. जहाँ अधिकतर नरसंहार की घटनाओं में सवर्णों के हमले में दलित और पिछड़े मारे गए वहीं नरसंहार की कम से कम दो बड़ी घटनाओं में दलितों को पिछड़ी जाति के कुर्मी जमींदारों/सामंतों ने मौत के घाट उतारा था, बेलछी (1977) और पिपरा (1980) में. वहीँ 2009 की खगड़िया की एक घटना ऐसी है जिसमें दलित जाति के मुसहरों द्वारा माओवादी संगठन की सहायता से नदी-पेटी की जमीन पर मालिकाना हक के विवाद में 16 पिछड़ों को घर से खींच कर मौत के घाट दिया गया था जिसमें 14 मृतक कुर्मी जाति के थे और दो कोइरी जाति के.
यह बानगी है जाति आधारित विषमता मूलक समाज की जिसमें लोग जाति के आधार पर संगठित होते हैं और सही अथवा गलत मुद्दों पर अपनी जात का पक्ष लेते हैं. और, चूँकि दलित जातियां आर्थिक एवं सामाजिक रूप से अधिक कमजोर हैं, इसलिए वे अपने से मजबूत सवर्ण एवं पिछड़ी जातियों द्वारा दबाए सताए जाते हैं.
बहुजन/ओबीसी साहित्य वालों को दलित साहित्य से चिढ़
सवर्णों से चली दलितों के प्रति ब्राह्मणवादी व्यवहार एवं विद्वेष की बीमारी साहित्य क्षेत्रे पिछड़े लेखक समुदाय में भी फ़ैल गयी है. साहित्य में ‘दलित साहित्य’ की अलग कैटेगरी में मान्यता से कुछ पिछड़े बौद्धिकों को यह लगने लगा है कि जैसे उनका हक़ हिस्सा दलित हड़पे जा रहे हैं. इसी अकुलाहट में कुछ लोगों द्वारा बहुजन साहित्य/ओबीसी साहित्य अलग से लाने का प्रयास किया गया है. और इसकी अगुआई बिहार के पिछड़े तबके के बौद्धिक संभाल रहे हैं. इस अभियान के मुखिया रहे हैं डा प्रमोद रंजन एवं उनके प्रमुख सिपहसालार बने हैं डा राजेन्द्र प्रसाद सिंह. ‘फारवर्ड प्रेस’ पत्रिका के प्रबंध संपादक रहे डा प्रमोद रंजन कहते हैं : “‘बहुजन साहित्य’ की अवधारणा का जन्म ‘फारवर्ड प्रेस’ के संपादकीय विभाग में हुआ तथा इसका श्रेय हमारे मुख्य संपादक आयवन कोस्का, आलोचक व भाषा विज्ञानी राजेंद्र प्रसाद सिंह तथा लेखक प्रेमकुमार मणि को है.
यह पिछले लगभग डेढ वर्षों में हमारे बीच चले वाद-विवाद और संवाद का नतीजा था.
राजेंद्र प्रसाद सिंह ‘ओबीसी साहित्य’ की अवधारणा लेकर सामने आये थे लेकिन प्रेमकुमार मणि ने इस शब्दवाली का घनघोर विरोध किया था. मैं भी इस शब्दावली से सहमत नहीं था. मैंने हमेशा ‘ओबीसी साहित्य’ की जगह ‘शूद्र साहित्य’ कहने का प्रस्ताव किया. ‘शूद्र’ शब्द संस्कृति और धर्म द्वारा प्रदत्त है तथा शूद्रों तथा अतिशूद्रों की एक लंबी साहित्यक परंपरा भी हिंदी पट्टी में मौजूद रही है.
अंततः हम ‘बहुजन साहित्य’ नाम की एक बड़ी छतरी के नाम पर सहमत हुए और वर्ष 2012 में फारवर्ड प्रेस ने पहली ‘बहुजन साहित्य वार्षिकी’ प्रकाशित की. अनेक पत्र-पत्रिकाओं में उस वार्षिकी की चर्चा हुई, लेकिन इस वर्ष बहुजन साहित्य वार्षिकी का संपादन करते हुए मुझे महसूस हुआ कि हम हिंदी के साहित्यकों को इस अवधारणा के बारे में बताने में शायद असफल रहे हैं.” डा प्रमोद रंजन यह भी कहते हैं, “दलित साहित्य का एक विरोधाभास यह है कि वह सिर्फ अनुसूचित जाति तक सीमित रह गया है यानी जो जातियां भारतीय संविधान के अनुसार ‘एससी’ सूची में दर्ज हैं, उन्हीं में पैदा हुए लेखक का साहित्य दलित साहित्य होगा. यानी वह सिर्फ अतिशूद्रों का साहित्य है, जिन्होंने अस्पृश्य होने की पीड़ा झेली है. शूद्र भी इससे बाहर हैं.”
डा प्रमोद रंजन बिहार की ‘त्रिवेणी’ (यादव-कुर्मी-कोइरी) मजबूत पिछड़ी जातियों में से एक कोइरी/कुशवाहा से आते हैं. प्रसिद्ध बिहारी लेखक प्रेमकुमार मणि भी इसी जाति से आते हैं और डा प्रमोद रंजन ने दशेक वर्षों से उनसे रागात्मक सम्बन्ध साध रखा है. कभी मणि एक वैचारिक पत्रिका निकालते थे जिसके संपादन सहयोगी यही डा रंजन हुआ करते थे. हालाँकि डा प्रमोद रंजन यह झूठ कहते हैं कि मणि भी उनकी ‘बहुजन साहित्य’ की धारणा उगाने से सहमत थे. वैसे, डा प्रमोद रंजन ने मणि के मुंह के निकले शब्दों को ही अपने मुंह में डालकर बाद में यह कहा कि दलित साहित्य सिर्फ अनुसूचित जाति तक सीमित रह गया है. मणि के आगे उद्धृत वक्तव्य से ये दोनों बातें स्पष्ट हो जाती हैं. अपनी एक फेसबुक पोस्ट में मणि लिखते हैं :
“हिंदी साहित्य में आजकल जातियुद्ध चल रहा है. मैं इस मुद्दे पर चुप रहना चाहता था, लेकिन कुछ कहना अब आवश्यक जान पड़ता है. मराठी में जब दलित साहित्य उभरा था, तभी मैंने दिनमान (1976), जनता (1978), जनयुग (1978) और फिलॉसफी एंड सोशल एक्शन (1980) में इस विषय पर विस्तार से लिखा था. पटना में 1975 के दिसम्बर में दलित साहित्य पर एक संगोष्ठी भी कराई थी, जिसमें बाबूराव बागुल, दया पवार, सतीश कालसेकर, अर्जुन डांगले जैसे नामचीन लेखक आये थे. मराठी सामाजिक नवजागरण की एक समृद्ध परंपरा है. वहां सामाजिक-राजनीतिक क्षेत्र में गाँधी-सावरकरवाद हावी था. इसी की छाया साहित्य पर भी पड़ रही थी. दलित लेखकों ने इसके मुकाबले फुले-अम्बेडकरवाद का झंडा बुलंद किया. मैंने इसे ही चिन्हित करने की कोशिश की थी. दुर्भाग्य से हिंदी में दलित साहित्य जाने-अनजाने अनुसूचित जाति साहित्य बन गया. केवल आत्मकथाएं लिखी गयीं, और यदि मुझे कहने दीजिये तो कहूंगा कि इनमें केवल ओमप्रकाश वाल्मीकि का जूठन और तुलसी राम का मुर्दहिया ही उल्लेखनीय है.” आगे वे लिखते हैं – “हिंदी के कुछ ओबीसी प्रोफ़ेसर दलित साहित्य की पैरोडी पर ओबीसी साहित्य की दुकान खोल रहे हैं. जरा सोचिये, इसमें ओबीसी तो है, लेकिन कुछ साहित्य भी है क्या? मुझे एक मुहावरा याद आ रहा है -‘बासी भात में खुदा का साझा’. साहित्य, खासकर हिंदी साहित्य को आज पढ़ता कौन है? अज्ञेय से ज्यादा सम्मान तो चेतन भगत का है. लेकिन उसमें भी मारा-मारी! पूरा हिंदी साहित्य आज चुपचाप महादलित साहित्य बन गया है. इस पर विचार होना चाहिए.” यहाँ स्पष्ट है कि दलित साहित्य पर नकारात्मक टिप्पणी करते हुए मणि ने ओबीसी साहित्य के कांसेप्ट को भी ख़ारिज किया है और ओबीसी साहित्य खड़ा करने वाले प्रोफेसर को दुकान खोलने वाला बता गये हैं. यह दुकान खोलने वाला प्रोफ़ेसर और कोई नहीं, बल्कि प्रो राजेंद्र प्रसाद सिंह हैं. ये भी जात से कोइरी हैं. डा राजेन्द्र प्रसाद सिंह ने फॉरवर्ड प्रेस के जून 2016 अंक में लिखा था कि सवर्ण साहित्य और दलित साहित्य की पूछ है, हमारा साहित्य कहीं नहीं है।
दलित साहित्य को रिजेक्ट करते हुए मणि का यह बताना कि ओमप्रकाश वाल्मीकि का जूठन और तुलसीराम का मुर्दहिया ही उल्लेखनीय है, उनके पूर्वग्रह को सामने लाता है. यह उनकी ब्राह्मणवादी मानसिकता का भी द्योतक है.
प्रेमकुमार मणि की बात और भी कर लेते हैं. ये अभी ‘मगध’ नाम से पत्रिका निकालते थे और जब बिहार विधान परिषद् के सदस्य थे तब इनके संपादन में ‘परिषद् साक्ष्य’ का प्रेमचन्द और दिनकर अंक निकला था. आप इनकी संलग्नता देखिये, इनके संपादन का ओरिएन्टेशन देखिये. एक तो इनमें इन्होंने अधिकतर सवर्ण लेखकों को छापा, दलितों को भाव न दिया, पत्रिका का कंटेंट भी बहुजन हित का भरसक ही रहता है. दूसरे, परिषद् साक्ष्य के दोनों अंक उन्होंने नामी सवर्ण लेखकों पर ही निकाले. ‘मगध’ के प्रथम अंक में इनके सहयोगी संपादक एक सवर्ण, कुमार मुकुल थे, उनसे तब इनकी अनबन हो गयी जब इन्होंने उनको बिना बताए प्रमोद रंजन को ‘मगध’ के दूसरे अंक का कुमार मुकुल के साथ सहयोगी संपादक बना दिया.
प्रमोद रंजन के ओबीसी ‘गैंग’ के ही एक सिपहसालार हैं डा कमलेश वर्मा, ये भी पिछड़ा हैं, संभवतः कुर्मी जाति के, इन्होंने भी दलित साहित्य को शेड्यूल्ड कास्ट लिटरेचर करार दिया है. देखिये, इन्हीं कमलेश वर्मा ने अपनी क़िताब ‘जाति के प्रश्न पर कबीर’ की भूमिका में कबीर के बहाने से जबरन प्रसंग बनाकर दलित साहित्य और उसके समस्त लेखकों को कैसे अपनी ‘पिछड़ी-लाठी’ से हाँक दिया है : “कबीर को दलित बताए जाने की परंपरा और विकास की तलाश यह पुस्तक करती है। दलित-विमर्श के प्रति समर्थन व्यक्त करते हुए यह कहना अब ज़रूरी हो गया है कि इसमें सत्ता-विमर्श की नीयत स्पष्ट दिखाई पड़ने लगी है। पीड़ा से मुक्ति की कोशिश, पीड़ा के बदले मुआवजा मांगने की प्रक्रिया से गुजरती हुई, वर्चस्व के सिंहासन तक पहुंच चुकी है। दलित और गैर-दलित के भेद का आग्रह प्रभावी होकर दुराग्रह बन चुका है। मुक्तिकामी विमर्श वर्चस्वकामी बनकर रह गया है। जातिवाद से पीडित लोगों की लड़ाई जातिवाद के विरुद्ध न होकर जातिवादी वर्चस्व को बदलने की लड़ाई बन गई है।”
सन 2012 में यानी आज से 10 साल पहले बहुजन साहित्य अथवा ओबीसी साहित्य का कांसेप्ट उगाया गया जबकि तबसे अबतक न तो इसका कोई इसकी कोई ठोस संकल्पना, परिभाषा बन सकी है न ही सौंदर्यशास्त्र. वैसे, ओबीसी साहित्य के प्रथम सिद्धांतकार डा. राजेन्द्र प्रसाद सिंह गोलमोल यह बताते हैं- “कामगार, किसान, कारीगर, मजदूर और पशुपालकों का साहित्य ही ओबीसी साहित्य है। यदि भारतेन्दु से लेकर प्रसाद, रेणु और आज के ओबीसी कवि-साहित्यकारों तक के विपुल साहित्य का अध्ययन किया जाये, तो उनका अन्तिम निष्कर्ष और चिन्तन ब्राह्मणवाद का विरोध करता है। अतः ओबीसी साहित्य का दायरा सबसे बड़ा है और हिन्दी साहित्य के सभी कालखण्डों में इसकी पहचान की जा सकती है।“ हालाँकि इन विद्वान ने अभी ओबीसी साहित्य की ठोस शिनाख्त सिद्धांत, सौंदर्यशास्त्र एवं पुस्तकों के रूप में नहीं की है, मगर, इधर हाल में एक रोचक एवं महत्वपूर्ण डेवलपमेंट यह हुआ है कि ओबीसी साहित्य को एक अकादमिक मान्यता मिल गयी है. दक्षिण बिहार केन्द्रीय विश्वविद्यालय, गया, बिहार के स्नातकोत्तर में वैकल्पिक पाठ्यक्रम के रूप में शैक्षणिक वर्ष 2022-23 से इस कैटेगरी में कुछ कविता, कहानी, उपन्यास सहित अन्यान्य विधाओं को चिन्हित कर रखा गया है. सम्मिलित लेखकों में रेणु, राजेंद्र यादव, भिखारी ठाकुर, ललई सिंह यादव, प्रेमकुमार मणि, डा राजेन्द्र प्रसाद सिंह, रामधारी सिंह दिवाकर, चन्द्रिका प्रसाद जिज्ञासु, हरिनारायण ठाकुर, मुद्राराक्षस, संतराम बी ए, सुभाष चन्द्र कुशवाहा, दिनेश कुशवाह, रमाशंकर यादव विद्रोही शामिल हैं.
बहुजन साहित्य की वकालत करने वाले लोग तो इतिहास एवं मिथक में जातीय नायकों अथवा जातीय नायक में फिट किये गए चरित्रों के प्रति भी अनन्य-अनालोच्य मोह रख रहे हैं जो कि प्रगतिशील एवं वैज्ञानिक सोच वाले समाज के विकास में बड़ी बाधा है और दलित साहित्य में त्याज्य है. दलित साहित्य में अगर मिथकीय दलित वंचित चरित्रों की प्रशंसा और स्वीकार है भी तो उन्हें आवश्यक रूप से मानव होना है, मानवेतर एवं अलौकिक नहीं. वाल्मीकि और व्यास को भारत के पहले दलित कवि के रूप में चित्रित करने वाले दलित एवं गैरदलित जन भी इसी व्यर्थ-वृथा मोह में बीमार हैं. यदि ये लोग दलित हुए भी हों तो मनुवादी साहित्य के पोषक एवं स्वजन विरोधी होने के कारण ये दलित कवि नहीं कहला सकते. वर्तमान में जैसे हम संघी छत्रच्छाया के कद्दावर राजनेता ओबीसी नरेंद्र मोदी को क्षणांश में बहुजन नेता नहीं मान सकते क्योंकि वे बहुजन विरोध एवं द्विजवादी अर्थात ब्राह्मणवादी संस्कृति व हित के पोषण में खड़े हैं. जाति जैसी बीमारी को जहाँ भगाने की सुनियोजित तैयारी होनी चाहिए वहाँ हम अपनी जाति की समृद्ध विरासत मिथकीय एवं ऐतिहासिक पात्रों में नहीं देख सकते. सम्राट अशोक यदि किसी गुण के लिए हमें ग्राह्य हो सकता है तो उसके परवर्ती बौद्ध धम्मीय संलग्नता एवं विवेक के कारण, न कि किसी ओबीसी रूट एवं राजन्य परिवार से आने के कारण. कीचड़ से कीचड़ नहीं धोया जा सकता.
कथित बहुजन साहित्य के मुख्य प्लेटफोर्म, फॉरवर्ड प्रेस के कुछ अंकों के पन्नों पर एक कथित मिथकीय बहुजन नायक महिषासुर की तस्वीर दिखाई देती रही है जिसकी दाहिनी हथेली आशीर्वादी-मुद्रा में ऊपर की ओर उठी हुई है. आशीर्वाद वही दे सकता है जिसमें मनुष्येतर अलौकिक शक्ति निहित हो. वैज्ञानिक चेतना से रहित बहुजनों ने बुद्ध, कबीर, रैदास जैसे महामानवों को भी इस मुद्रा में परोस रखा है जो ब्रह्मणी आशीर्वादी संस्कृति का ही एक भयावह रोग है. ऐसे भक्त बहुजनों एवं पारंपरिक भक्त अभिजनों में कोई अंतर नहीं है. पत्रिका के पन्नों पर ही कई लेखकों ने महिषासुर को यादव करार दिया है. कोई रावण को ब्राह्मण मानता है तो कोई आदिवासी, क्योंकि राम का खानदान भी राजपूत मान लिया गया है. कृष्ण को भी यादव मानते हुए फॉरवर्ड प्रेस में कई बार कृष्ण-आरती उतारी गयी है. यह सब क्या है? क्या कथित त्रेता, द्वापर युग के मानव जन्म के इतिहास के काल से इतर आये काल्पनिक चरित्रों एवं उनकी जाति स्थिति को स्वीकारा जा सकता है? स्पष्ट इशारा मेरा यह है कि वैज्ञानिक चेतना में न फिट होने वाली धारणाएं सभ्य एवं विवेकी समाज के लिए वरेण्य नहीं हो सकतीं, चाहें वह वंचित एवं पिछड़े समाज से जुड़कर अथवा उनका पक्षपोषण कर ही क्यों न आती हों. और, इस बात का दलित साहित्य, जो कि अम्बेडकरी चेतना का साहित्य है, में खास ध्यान रखा जाता है. यहाँ यह उल्लेख करना भी अप्रासंगिक न होगा कि आदिवासी साहित्य में भी कहीं कहीं पुरातन संस्कृति के प्रति प्रगतिहीन मोह है, दकियानूसी लगाव है। फॉरवर्ड प्रेस की एक साहित्य वार्षिकी में मैंने प्रसिद्ध आदिवासी कवि निर्मला पुतुल एवं अनुज लुगुन की ऐसे ही प्रतिगामी मोहों से सजी मगर सुन्दर दिखती कुछ रचनाओं का सोदाहरण पोस्टमार्टम किया था. रेखांकित करने योग्य है कि ये आदिवासी कवि पारंपरिक सर्वजन शिल्प में कविताएं करते हैं जो कहीं से भी प्रभु वर्णवादी मानसिकता पर प्रहार नहीं करतीं. जिस कवयित्री की रचना में शहर से अलग थलग वान-प्रांतर में बने फूस के आंगन वाले उस घर में किसी आदिवासी कन्या के ब्याहे जाने की पैरवी हो जहाँ मुर्गा के बंधे होने एवं उसके बांग देने से लोग अपना जगना निर्धारित कर सके, उसे क्या कहें. जो कवि आदिवासियों के नंग-धड़ंग रहने, नंगे पाँव वनों में चलने की मज़बूरी को सांस्कृतिक मजबूती बताए उसे क्या कहियेगा?
फॉरवर्ड प्रेस ने एक और जबर्दस्त घालमेल एक बार किया था. उसने अपना एक विशेषांक बहुजन नायकों पर निकाला था उसमें एक भी नायक दलित तबके से नहीं था, जबकि कायस्थ (सवर्ण) तबके से आने वाले स्वामी विवेकानंद और मुंशी प्रेमचंद को बहुजन मान लिया था.
फॉरवर्ड प्रेस पत्रिका की अंतिम बहुजन साहित्य वार्षिकी मई 2016 में आई और अंतिम प्रिंट अंक जून 2016 में, दोनों अंकों में मुझे लिखने का आमंत्रण भी पत्रिका के प्रबंध संपादक प्रमोद रंजन से मिला पर दोनों अंक के लिए भेजे गए मेरे आलेख केवल इसलिए नहीं छापे गए कि उनमें ओबीसी साहित्य की धारणा एवं मुहिम की मैंने आलोचना की थी.
अंत में एक रोचक मगर चिंताजनक प्रसंग से आलेख का समापन करता हूँ. बिहार के एक चर्चित दलित यूट्यूबर हैं वेदप्रकाश. ‘द एक्टिविस्ट’ नाम से वे यूट्यूब चलाते हैं. वे जीतनराम माँझी के मीडिया सलाहकार भी थे जब वे मुख्यमंत्री थे. वेदप्रकाश के एक अभिन्न मित्र हैं बिहार के ही चंद्रभानु यादव. इन यादव ने कभी बाबा साहेब आंबेडकर के विरुद्ध फेसबुक पर अभियान चला रखा था कि औसत प्रतिभा के थे आंबेडकर जिनकी सारी डिग्री थर्ड अथवा सेकेण्ड क्लास की है. आंबेडकर के भारतीय समाज में योगदान को उन्होंने कभी स्वीकारा नहीं, मगर, इन यादव जी के दलित दोस्त ने कभी उनको सार्वजानिक रूप से टोका नहीं कि दोस्त, यह तुम बहुत गलत कर रहे हो, यह अक्षम्य अपराध है. ये दोनों आज भी पटना में साथ साथ घूमते दिख जाते हैं. वेदप्रकाश जबकि जय भीम के अभिवादन के साथ अपना वीडियो शुरू करता है लेकिन उसने एक भीम निंदक को अपना दोस्त बना रखा है. यह आंबेडकर निंदक चंद्रभानु यादव अव्वल दर्जे का यादववादी भी है. फैजाबाद के एक साधु, जो बिहार के सीतामढ़ी का है और मेरा भी परिचित है, को उसने एक एंड्राइड मोबाइल भी कभी गिफ्ट किया था, पटना में उसका यादव सर्कल जबरदस्त है. उधर, वेदप्रकाश के साथ यह जरूर है कि वह दलित पिछड़े मुद्दे पर वैज्ञानिक चेतना भरी दृष्टि से न्यूज और घटनाएँ कवर करने की कोशिश करता और बिहार का वह सबसे बड़ा दलित यूट्यूबर है, उसके सब्स्क्राइबर की संख्या लगभग 13 लाख है.
आलेख : डा. मुसफ़िर बैठा
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