प्रश्नचिह्न
प्रश्नचिह्न
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स्वर्णमयी आभा ज्योतित है, राघव के दरबार में
और मानवों ने फैलाई, ख़बर, नगर, घर-बार में;
रघुनंदन है श्रेष्ठ सभी से
मान्य मानकों को बतलाओ
सीता, सती अभी भी हैं यह
साक्ष्य हमें भी तो दिखलाओ,
लक्ष्मण के बाणों के कौशल
सत्यापित तो कर दो इक बार
शक्ति नहीं यदि संवादों में
फिर हैं हनुमंत बड़े बेकार।
समय गुजरता गया युगों से
इतिहासों की बारी भी
नीयति डोली कुटिल मनुज की
खुलकर, बारी-बारी भी,
वर्तमान में मानव समझे
श्रेष्ठ स्वयं को पुरखों से
प्रश्न उठाकर चिह्नित करता
अस्तित्व को निज अधरों से।
समझूँ इसको कलि महिमा क्या,
राह विवेक दिखाऊँ इनको?
या भ्रमवश फँसते पतंग को
दीपक छाँव बचाऊँ सबको?
लेकिन ऐसे बने बात ना
लोलुप जीव सँभालूँ कैसे?
छोड़ इन्हें क्या हालात पर,
जीभ कलम की तोड़ूँ कर से?
…“निश्छल”