प्रयत्नशील
प्रयत्नशील
भोजन के पश्चात विश्वामित्र ने कहा, ” सीता तुम्हें क्या आशीर्वाद दूँ, जो मनुष्य अपनी सीमाओं को पहचानता है, वह परिपूर्ण हो जाता है, इस जंगल में , इस कुटिया को तुमने अपनी सह्रदयता से राजधानी बना दिया है, तुम्हारे परिश्रम का फल यहां आने वाले प्रत्येक अतिथि को यूँ ही मिलता रहे इसकी सद्कामना करता हूँ। ”
” मेरे लिए यही पर्याप्त है ऋषिवर। ” सीता ने हाथ जोड़ते हुए कहा।
ऋषि ने हाथ उठाकर आशीर्वाद दिया, और फिर राम , लक्ष्मण की ओर मुड़े , ” अपने आतिथेय को मै क्या दे सकता हूँ? ”
” सीता को दिया गया आशीर्वाद हम सब के लिए है भगवन। ” राम ने कहा।
” तुम राजा होते तो इतना पर्याप्त हो जाता, परन्तु अब तुम वनवासी हो, तुम्हारा अधिकार बढ़ गया है, यह भोजन कर से नहीं , तुम्हारे परिश्रम से जुटा है, मै तुम्हें प्रश्न करने का अधिकार देता हूँ ।”
” तो ऋषिवर आज रात यहाँ रूक जाइये , संध्या समय आसपास के गावों से औऱ लोग आ जायेंगे , उन्हें भी आपके सत्संग का लाभ हो जायेगा। मै राजा नहीं हूँ, परन्तु मेरा प्रशिक्षण राजा का है, इसलिए में वनवासी होकर भी सोचता राजा की तरह ही हूँ। ”
ऋषि मुस्करा दिए, ” हाँ राम , तुम्हारा राजा होना राज्यपर निर्भर नहीं है, तुम जहां रहोगे जनकल्याण की बात ही सोचोगे। ”
यह सुनकर लक्ष्मण मुस्करा दिए।
संध्या समय रोज की तरह वहां राम के प्रांगण मेँ सैकड़ो लोग इकट्ठे हो गए, यही वह समय होता था जब लोग राम को सुनने के लिये आते थे । राम का यह मानना था , इस तरह से न केवल जन सामान्य को सामाजीकरण का अवसर मिलता है, अपितु ज्ञान और सद्भावना का प्रसार भी होता है।
ऋषि आये हैं, यह समाचार जंगल में आग की तरह फैल गया था , औऱ लोग बहुत उत्साह से उन्हें सुनने आये थे , ऋषि एक छोटे से मंच पर पदासीन हो गए, औऱ राम जनसाधारण के साथ नीचे बैठ गए ।
ऋषि ने कहा , “ ज्ञान पर सबका एक सा अधिकार है, मैं चाहता हूँ , आप प्रश्न करें , और हम समाधान तर्क , वितर्क द्वारा ढूँढें ।”
कुछ पल के लिये चुप्पी छाई रही , फिर एक किशोर ने खड़े होकर पूछा , “ ऋषिवर आप पहले राजा थे, आपका वह जीवन अधिक सुखद था या आज का यह साधक का जीवन अधिक आकर्षक है ?”
ऋषि ने कुछ पल रूक कर कहा , ” प्रश्न बहुत गंभीर है और उलझा हुआ भी है, ” फिर उन्होंने राम को देखते हुए पूछा, ” राम तुम क्या कहते हो , सुख अयोध्या में था या यहां जंगल में अधिक है ?”
” मैं व्यक्तिगत सुख की बात कभी नहीं सोचता , मै वही करता हूँ जिससे जीवन मूल्यों की रक्षा हो सके , और समाज में शांति बनी रहे। ” राम ने कहा ।
” तो क्या अश्वमेध यज्ञ नहीं करोगे ?”
” अपने राज्य के प्रभुत्व को बढ़ाना मेरा कर्तव्य होगा। ”
” अर्थात अनावश्यक युद्ध करोगे , और दूसरों को अपने अधीन करोगे, यह कौन सा जीवन मूल्य है राम ?”
राम चुप रहे, परन्तु लक्ष्मण ने कहा , ” हम राजपुत्र हैं , और यह राजा का धर्म है। ”
” अर्थात जो चला आ रहा है, वही उचित है , फिर तो नए चिंतन की आवश्यकता ही नहीं। ”
” परन्तु ऋषिवर अपने राज्य की रक्षा और स्वतंत्रता के लिए, हमें हथियार भी बनाने होंगे , सेनायें भी खड़ी करनी होंगी , और आवश्यक्ता पड़ने पर अश्वमेध यज्ञ भी करने होंगे ।” सीता ने कहा ।
” अर्थात जब तक राज्य होंगे उनकी सीमायें होंगी , युद्ध होते रहेंगे , “ फिर ऋषि ने हाथ उठाते हुए कहा, ” तो क्या मनुष्य का जन्म मात्र राज्य बनाने और उनकी रक्षा के लिए हुआ है, अथवा बौद्धिक और मानसिक प्रगति के लिए हुआ है ?”
” परन्तु ऋषिवर मानसिक और बौद्धिक प्रगति के लिए भी तो राज्य चाहिए। ” लक्ष्मण ने कहा । “ और क्षमा करें ऋषिवर , ज्ञान की प्रगति के लिए गुरुकुल भी राज्य पर निर्भर करते हैं , और यदि राज्य उनको आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बना भी दे , तो क्या यह विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि कल को सबल होने पर यह गुरुकुल अपनी सत्ता का विस्तार नहीं करना चाहेंगे ?”
विश्वामित्र हस दिए ,” तुमने वो कह दिया लक्ष्मण , जो मुझे कहना है , राज्य होंगे , तो हथियार होंगे , द्वेष होगा ।जीवन आनंद और ज्ञान की पिपासा कम, तुलना का , मोल भाव का अनुभव बन कर रह जायेगा , जिसमें धन मुख्य हो उठेगा , कला , ज्ञान , जीवन मूल्य , सब बिकने लगेंगे। ”
“ तो उपाय क्या है , ऋषिवर ?” सीता ने पूछा।
“ उपाय तो सम्भव ही नहीं पुत्री , अगर राज्य होंगे तो राजा होंगे , धनी , निर्धन होंगे , ज्ञानी, अज्ञानी होंगे , ब्राह्मण और शूद्र होंगे ।”
सब तरफ गहरा सनाटा छा गया।
“ व्यक्ति के रूप में मेरा निर्णय यह है कि, मैं अपनी स्वतंत्रता की रक्षा करना चाहता हूँ , इसलिए अपने जीवन में किसी राज्य का भाग नहीं बनना चाहता, राजा के रूप में भी नहीं। ” विश्वामित्र ने अंधकार में सन्नाटे को चीरते हुए कहा।
शांति पाठ हुआ और सब अपने घर लौट गए।
सीता देख रही थी कि राम सो नहीं पा रहे, वे करवटें बदल रहे थे।
सीता ने धीरे से उनके कंधे पर हाथ रखा तो वे उठकर बैठ गए।
“ आप बहुत व्यथित हैं ?”
“ हाँ । मैं अपने लक्ष्य से भटकना नहीं चाहता , ऋषिवर जिस स्वतंत्रता की बात कर रहे हैं , वह सही है, राज्य बनते हैं तो कुछ मुट्ठी भर लोग हजारों करोड़ो के जीवन को प्रभावित करने लगते हैं, राज्य जितना विशाल होता है जन साधारण की स्वतंत्रता उतनी ही सीमित हो जाती है , और दुःख की बात यह है कि जनसाधारण भूल जाता है कि वह स्वतंत्र नहीं हैं। ”
सीता ने राम के दोनों हाथ अपने हाथों में ले लिए , वह जानती थी कि राम मनुष्य की इस दुर्दशा की कल्पना मात्र से सिहर उठे हैं।
अभी सूर्योदय नहीं हुआ था , परन्तु दिवमान के पधारने की आहट वातावरण में थी , सितारों की झिलमिलाहट क्षीण हो गई थी , और ऋषि जाने को तत्पर थे । सीता ने ऋषि को प्रणाम करते हुए कहा ,
“ जंगल में बीत रहे इस समय के लिए , हम ईश्वर के आभारी हैं, जंगल के जीवन को इतने निकट से देखने पर मुझे लगता है , न्याय, स्वास्थ्य , शिक्षा , इन सब के लिए संगठन की आवश्यकता है , पर वह कैसा हो , कितना बड़ा हो, मैं अभी नहीं जानती। ”
“ जान जाओगी , मेरा आशीर्वाद तुम्हारे साथ है। ”
“ गुरुवर मुझे व्यक्तिगत स्वतंत्रता की खोज नहीं है , मैं परिवार चाहता हूँ , अयोध्या की खुशहाली चाहता हूँ। ” लक्ष्मण ने प्रणाम करते हुए कहा ।
“ तुम विनयी हो , तुम्हें सबका स्नेह मिलेगा , और जिस राज्य का राजा राम हो , वहां की प्रजा सुख शांति से रहेगी। ”
“ ऋषिवर , आपसे वरदान मांगता हूँ ,” इससे पहले राम कुछ आगे कहते , विश्वामित्र ने कहा , “ नहीं राम तुम्हारे तेज से यह जंगल जगमगा रहा है , इस वनवासी रूप में भी तुम राजा हो और राजा मांगता हुआ अच्छा नहीं लगता। ”
कुछ पल रुककर राम ने कहा , “ तो वचन देता हूँ , मेरे राज्य में सभी निर्णय जनसामान्य की अनुमति से होंगे। ”
ऋषि ने झोले से निकाल कर एक ताम्रपत्र राम को देते हुए कहा , “ तो यह लो , यह ताम्रपत्र आवश्यकता अनुसार छोटा बड़ा होता रहेगा , तुम्हें जिस भी विषय पर निर्णय लेने हों , इस पर विस्तार से लिखकर राज्य के मध्य में रख देना , प्रजाजन इसपर निश्चित तिथि तक अपना मत लिख देंगे। ”
राम मुस्करा दिए , “ और जिसको अधिक मत मिलें , वह निर्णय मान लिया जाय ।” थोड़ा रुककर राम ने कहा , “ मैं जनता हूँ , यह विधि परिपूर्ण नहीं है , परन्तु समानता की ओर शायद यह पहला कदम है। ”
राम ने जैसे ही चरणस्पर्श किये , ऋषि ने आशीर्वाद में हाथ उठाये , और बिना पीछे मुड़े , सुबह के अंधकार में जंगल में विलीन हो गए।
——शशि महाजन