प्रथम प्रेयसी
उपमा से उपमान जुड़ा है
गणना से अनुमान जुड़ा है
भोर किरन से,प्रीत मिलन से,शब्द-शब्द से मान जुड़ा है
दुनिया की सारी सुन्दरता
गीतों में अब ढल जाने दो
कवि हूँ, मेरी प्रथम प्रेयसी कविता का सम्मान जुड़ा है
ऋतुओं के आने-जाने से
सपने नहीं मरा करते हैं
दूब घास की ओस चुराकर सागर नहीं भरा करते हैं
तपती चुभती दोपहरी में
सूखें चाहे ताल-तलैया
सूरज की जलती आँखों से बादल नहीं डरा करते हैं
बरखा की रिमझिम बूँदों से
सावन का अरमान जुड़ा है
कवि हूँ, मेरी प्रथम प्रेयसी कविता का सम्मान जुड़ा है
प्रेमगीत का सर्जक हूँ मैं
नयनों की भाषा पढ़ता हूँ
संस्कार का लेप लगाकर पीतल पर सोना मढ़ता हूँ
दो बाँहें हैं गंगा-यमुना
सारी कटुता बह जाने को
जाति-धर्म की बात करें वो, मैं तो बस मानव गढ़ता हूँ
मेरे जीवन की पोथी में
राम कहीं रहमान जुड़ा है
कवि हूँ, मेरी प्रथम प्रेयसी कविता का सम्मान जुड़ा है
तन की वेदी बैठ,स्वयं को
मन का पाठ पढ़ाऊंगा मैं
आचमनी टूटी है तो क्या? चन्दन-पुष्प चढ़ाऊंगा मैं
बीच भँवर में अटकी नइया
लहरों में पतवार खो गये
है ‘असीम’ अम्बर की दूरी,फिर भी हाथ बढ़ाऊंगा मैं
स्वाभिमान की बातें हैं पर
इनसे भी अभिमान जुड़ा है
कवि हूँ, मेरी प्रथम प्रेयसी कविता का सम्मान जुड़ा है
© शैलेन्द्र ‘असीम’