प्रति दिन एक लौ जला रहाहूँ
प्रतिदिन एक लौ जला रहा हूं ।
नव आशाओं के खिले कमल ,
उन पर गाते भंवरों के दल ,
सब की आकांक्षाएं प्रबल ,
गीत प्रीत के रचा रहा हूं ।
प्रतिदिन एक लौ जला रहा हूँ।।
भाग्यहीन जीवन के पथ पर ,
चढ़कर कर्मों के ही रथ पर ,
विश्वासों को यूं मथ मथ कर ,
राहें अपनी बना रहा हूं ।
प्रतिदिन एक लौ जला रहा ।।
जीवन गाथाओं के यह पल ,
भावों की सरिता कि कल कल,
सागर मंथन के मध्य अचल ,
अमृत की गागर बचा रहा हू।
प्रतिदिन एक लौ जला रहा हूँ।।
कभी रिवाजों कभी रीत की ,
कभी सुहानी प्रेम प्रीत की ,
कभी गूंजते हुए गीत की ,
एक कविता सुना रहा हूं ।
प्रतिदिन एक लौ जला रहा ।।
दूरी के ही विश्वासों की ,
घर आंगन और मुंडेरो की,
स्वयं प्रतिबंध लगा रहा हूं
सूरज एक मैं उगा रहा हूँ
प्रतिदिन एक लौ जला रहा हूं
मीनाक्षी भटनागर
स्वरचित